त्रिलोक सिंह ठकुरेला
किस से अपना दु:ख कहें, कलियॉं लहूलुहान।
माली सोया बाग में, अपनी चादर तान।।
कपट भरे हैं आदमी, विष से भरी बयार।
कितने मुश्किल हो गये, जीवन के दिन चार।।
खो बैठा है गॉंव भी, रिश्तों की पहचान ।
जिस दिन से महॅंगे हुए, गेहूँ, मकई, धान।।
खुशियाँ मिली न हाट में, खाली मिली दुकान।
हानि–लाभ के जोड़ में, उलझ रहे दिनमान।।
चौराहे पर आदमी, जायेगा किस ओर।
खडे हुए हैं हर तरफ, पथ में आदमखोर।।
जीवन के इस गणित का, किसे सुनायें हाल।
कहीं स्वर्ण के ढेर हैं, कहीं न मिलती दाल।।
सीख सुहानी आज तक, आई उन्हें न रास।
तार- तार होता रहा, बया तुम्हारा वास।।
घर रखवाली के लिए, जिसे रखा था पाल।
वही चल रहा आजकल, टेढ़ी -मेढ़ी चाल।।
द्वारे -द्वारे घूमकर, आखिर थके कबीर।
किसको समझाएँ यहॉं, मरा आँख का नीर।।
शेर सो रहे माँद में, बुझे हुए अंगार।
इस सुषुप्त माहौल में, कुछ तू ही कर यार।।
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