पथ के साथी

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Thursday, January 31, 2019

672-मैं अकेला ही चला हूँ


मैं अकेला ही चला हूँ
      रमेश गौतम

मैं अकेला ही चला हूँ
साथ लेकर बस
हठीलापन

चित्र-रमेश गौतम
एक ज़िद है बादलों को
बाँध कर लाऊँ यहाँ तक
खोल दूँ जल के मुहाने
प्यास फैली है जहाँ तक
धूप में झुलसा हुआ
फिर खिलखिलाए
नदी का यौवन              

सामने जाकर विषमताएँ
समन्दर से कहूँगा
मरुथलों में हरीतिमा के
छन्द लिखकर ही रहूँगा
दर्प मेघों का
विखण्डित कर रचूँ मैं
बरसता सावन

अग्निगर्भा प्रश्न प्रेषित
कर चुका दरबार में सब
स्वाति जैसे सीपियों को
व्योम से उत्तर मिलें अब
एक ही निश्चय
छुएँ अब दिन सुआपंखी
सभी का मन
-0-

Thursday, October 11, 2018

851-मन -जीवन


1-मन -जीवन
भावना सक्सैना

देह और मन का संघर्ष है बरसों से
कि दोनों ही अकसर साथ नहीं होते
देह जीती है अपने वर और शाप
कभी समतल धरती पर तो कभी
उबड़-खाबड़ घने गहरे जंगल में
और मन बुनता है घोंसला आकाश में
वह जीता है अकसर कल में
सपनों में, पुरानी डायरियों के पन्नों में
और कभी बैठ जाता है
दहकते ज्वालामुखी के मुहाने पर
फूँकता है उसमें शीतलता
कभी शांत हो जाती है ज्वाला
तो कभी राख हो जाता है मन।
जहाँ देह होती है
अकसर मन नहीं होता
यह जानते  हुए कि
कहीं होकर भी न होना
समय को खो देना है
मन बैठा रहता है
ऊँचे वृक्ष की फुनगी पर
वृक्ष के फलों से सरोकार नहीं
वह देखता है दूर तलक
सपने सुनहरे नए कल के।
देह जब अर्जित कर रही होती है
रेखांकन : रमेश गौतम 
अपने अनुभव और ज़ख्म सुख के
मन गुनगुनाता है
गीत किसी और क्षण के
किंतु शापित है मन
युगो-युगों से फिर-फिर
वही दोहराता आया है
उम्र भर देह से  रहकर जुदा
देह के बाद न रह पाया है
लाता है नियति एक ही
चलती नहीं किसी की जिस पर
मन जो रहता नहीं देह का होकर
खत्म हो जाता है देह संग जलकर।
फिर भी मन असीम अनंत
नन्ही चिड़िया- सा सँभालो इसे
कि जब टूटता है मन
देह में प्राण रहें ,न रहें
रह जाता नहीं उसमें जीवन।
-०-
2 -दोहे-
रेनू कुमारी
1
उसके आनन की चमक,जैसे खिलती धूप।
काली अलकों की घटा,सदा निखारे  रूप।।
2
फूलों से सजती शिखा,नैनन कजरा धार।
चंचल है वह रूपसी,करती दिल पर वार।।
3
मलयज -सी खुशबू  भरे ,सुन्दरता के गीत।
सहनशीलता प्रेम हैं, उसके सच्चे मीत।।
4
हाथों में कंगन सजा,पायल की झनकार।
करती हैं शृंगार जब,उर में  उमड़े  प्यार।।
5
वसुधा का शृंगार है, हरियाली चहुँ ओर।
मोर पपीहा मस्त हैं, पंछी  करते शोर।।
-०-

Saturday, July 22, 2017

750

रमेश गौतम  के दो नवगीत
1
जल संवेदना
 अब नहीं शृंगार
प्रणय-याचना के
मैं लिखूँगा गीत जल संवेदना के

पूछते हैं रेत के टीले हवा से
खोखला संकल्प क्यों जल संचयन  का
गोद में तटबन्ध के लगता भला है
हो नदी का नीर या पानी नयन का
अब नहीं मनुहार
मधुवन यौवना के
मैं लिखूँगा गीत जल अभिव्यंजना के

ताल के अस्तित्व पर हँसती हुई जब
तैरती है सुनहरी अट्टालिकाएँ
बादलों से प्रश्न करती मछलियाँ तब
किस जगह अपना घरौंदा हम बनाएँ
अब नहीं व्यापार
कंचन कामना के
मैं लिखूँगा गीत जल आराधना के

एक दिन हो जाएगा बंजर धरातल
बीज बारि के यहाँ बोना पड़ेंगे
तप्त अधरों पर कई सूरज लिये हम
मरुथलों में युद्ध पानी के लड़ेंगे
अब नहीं दरबार
में नत प्रार्थना के
मैं लिखूँगा गीत जल शुभकामना के
 .0.
2
 
दीपशिखा से जले सभी के
मटमैले आगारों में
अपना दर्द समेटा हमने
जुगनू भर उजियारों में

हारे नहीं कभी हम आँधी
अँधियारों की आहट से
हार गये अपने ही रिश्तों की
बारीक बुनावट से
पीर धरे सिरहाने सोए
जागे हाहाकारों में

बहुत घना बादल आँखों में
जाने कब से ठहरा है
नाप न पाया अब तक कोई
पानी कितना गहरा है
जर्जर सेतु स्वयं ही बाँधा
बीच भँवर मझधारों में

बाँध किसी के मन को पाते
ऐसी कला नहीं आई
थोड़े सुख के लिए किसी की
विरुदावली नहीं गाई
कैसे जगह हमें मिल पाती
रंग चढ़े दरबारों में

किसे दिखाते अन्तर्मन में
एक हिमालय जमा सघन
मौन पिघलता तो बह जाता
सम्बन्धों का वृन्दावन
साध लिया हर आँसू का कण
पलकों के गलियारों में

अभिशापित अधरों पर कोई
पनघट तरस नहीं खाता
मरुथल के घर किसी नदी का
कब कोई रिश्ता आता
प्यास थकी आँचल फैलाए
मेघों की मनुहारों में

किसी भटकते बंजारे की
प्यास नहीं सींची होगी
लौट गया होगा खाली ही
घर से फिर कोई जोगी
मन आजीवन दण्ड भोगता
तन के कारागारों में

-0-

Thursday, August 6, 2015

पाँखुरी नोची गई




नवगीत

रमेश गौतम

फिर सुनहरी
पाँखुरी नोंची गई
फिर हमारी शर्म से गर्दन झुकी ।

फिर हताहत
देवियों की देह है
फिर व्यवस्था पर
बहुत सन्देह है
फिर खड़ी
संवदेना चौराहे पर
फिर बड़े दरबार की साँसे रुकी ।

फिर घिनौने क्षण
हमें घेरे हुए
एक गौरैया गगन
कैसे छुए
लौटती जब तक नहीं
फिर नीड़ में
बन्द रहती है हृदय की धुकधुकी ।

फिर सिसकती
एक उजली सभ्यता
फिर सभा में
मूक बैठे देवता
मर गई है
फिर किसी की आत्मा
एक शवयात्रा गली से जा चुकी ।

फिर हुई है
बेअसर कड़वी दवा
फिर बहे कैसे
यहाँ कुँआरी हवा
कुछ करो तो
सार्थक पंचायतों में
छोड़कर बातें पुरानी बेतुकी ।
-0-
रमेश गौतम
रंगभूमि, 78बी, संजय नगर, बरेली-243001
-0-

2-कृष्णा वर्मा

कितना दुस्साध्य है
स्वयं को परिणत करना
लाख चेष्टाओं के बाद
कई बार विफल रही
तंग चुकी थी
अन्यों की बातें सुन-सुन
मेरी चुप्पी
उन्हें अपनी जीत का
अहसास दिलाती थी
जब-तब ज़ुबाँ की कमान पर
शब्दों के बाण कसती
तोड़ने लगी मैं अपनी चुप्पी
आए दिन बंद होने लगे
एक-एक कर हृदय की
कोमलता के छिद्र  
और दिनो-दिन लुहार- सा
कड़ा होने लगा मेरा मन
खिसकने लगे मुट्ठी में बँधे  
आचार व्यवहार संस्कार
धीरे-धीरे चेहरे ने भी सीख लिया    
प्रसन्नता ,आक्रोश
स्वीकृति, अस्वीकृति का  
प्रदर्शन करना  
फूटने लगे थे बोल भी
अब तो फटे ढोल से
कर्क शब्दों की संख्या
बढ़ने लगी थी दैनिक बोली में
समय और परिस्थितियों की
माँग पूरी करते-करते
चेहरा जैसे चेहरा रह
मुखौटा हो गया था
धीरे-धीरे बदलती जा रही थीं
सोच की दिशाएँ
जीवन के रंगमंच पर
प्रतिपल का जीना
नाटक -सा लगने लगा
र्ष्या का घुन
सयंम की लाठी को
लगातार खोखला
किए जा रहा था
यूँ लगने लगा-
ज्यों हारने लगी हूँ
दुनियावी कसीनो में
संस्कारों की संचित पूंजी को
एक दिन सहसा अहसास हुआ
कि स्वयं को बदलना कठिन नहीं
अपितु कठिन है- प्राप्य को बचाना।
-0-