: जीवन को आईना दिखाता काव्य-संग्रह
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मानव-जीवन विभिन्न भावानुभूतियों का इन्द्रधनुष है ।जब तक लहर है ,तब तक प्रवाह है ; जब तक प्रवाह है तब तक जीवन है । पथरीली -सर्पिली , फूलों -भरी , शूलों से उलझी घाटियों से गुज़रती पगडाण्डी की तरह । हमारी दृष्टि ही उसे सुखद या दु:खद बना देती है।‘मैं कितने जीवन जिया !’ काव्यकृति जीवन-अनुभवों का दस्तावेज़ है । कहीं जीवन के यथार्थ की तल्ख़ियाँ हैं तो कहीं प्यार की तरंगे हैं,कहीं सामाजिक सरोकारों की चिन्ता है तो कहीं थके -हारे मुसाफ़िर का हौसला बढ़ाते स्वर हैं। कहीं प्रकृति का मनोरम शृंगार आह्लाद जगाता है तो कहीं प्यार का संवेदन अभूतपूर्व जीवन-सुरभि से भर देता है । संसार के व्यावहारिक स्वरूप को भी कवि ने पाठकों के सामने उद्घाटित कर दिया है । इस सबके बावज़ूद एक दृष्टिकोण सर्वोपरि है ,और वह है जीवन के प्रति आस्थावादी सकारात्मक दृष्टिकोण;जो हारे-थके पथिक की शक्ति बन जाता है ।
‘पनहारिन’ शीर्षक त्रिवेणी में पनिहारिन और पनघट के माध्यम से अनेक अर्थ -छटाएँ बिखरती नज़र आती हैं। पनघट भी पनहारिन का इन्तज़ार करता है , यह सन्देश पूरी कविता को और अधिक जीवन्त बना देता है-
-गगरी ले मीलों चले / कभी न पनहारिन थके / पनघट उसका पथ तके -26
यही सौन्दर्यबोध अन्यत्र भी बहुत मुखर हुआ है ; लेकिन बहुत सादगी के साथ और पूरी अन्तरंगता से -
-अधर कली के चूमकर / कहा भ्रमर ने झूमकर- / ‘रस के घट तेरे अधर’ -62
इन तीन पंक्तियों के लघु कलेवर में इतना कुछ कह दिया है कि पाठक अपने मानस -पटल पर भाव -चित्र की छटा महसूस करने लगता है ।
कवि का जीवन- दर्शन अनेकानेक प्रकार से प्रकट होता है । साहस के स्वरूप को इन पंक्तियों में सुदृढ़ आधार दिया गया है ।
-कहीं न तव साहस चुके / साहस तेरा देखकर / संघर्षों का सर झुके - 29
जिसमें साहस होगा वह बाधाओं के आगे समर्पण नहीं करेगा , अपनी दुर्बलताओं का रोना नहीं रोएगा। जीवन की आग उसे हारकर बैठने नहीं देगी वरन् सदा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहेगी-
--पंख कटे तो क्या हुआ / मन में है ऐसी अगन / छू ही लूँगा मैं गगन - 99
सुख -सुविधाओं में तो कोई भी जी लेगा; लेकिन विषम परिस्थितियों में जीना सबसे बड़ी चुनौती है-
-फूलों में रहना सरल / काँटों में रहना कठिन / रहकर देखो चार दिन -33
जो व्यक्ति कंटकाकीर्ण मार्ग से कंटक हटाने में सिद्धहस्त है , जिसका फूल बाँटने में विश्वास है ; वह अपना मार्ग प्रशस्त कर ही लेगा-
-शूल छाँटते हम चलें / आएँ हैं तो भूमि पर / फूल बाँटते हम चलें -36
कर्मशील व्यक्ति के लिए प्रगति के द्वार कभी बन्द नहीं होते । स्वामी जी केवल कवि ही नहीं हैं, वरन् समाजचेता भी हैं , अत: इनका दृढ़ विश्वास है -
-एक द्वार जब बन्द हो / खुल जाते हैं बीसियों / राह तकें है तीसियों -53
ये पंक्तियाँ किसी भी निराश -हताश को शक्ति-स्फूर्त कर देंगी । यह मन: स्थिति तभी हो सकती है , जब व्यक्ति जीवन की कटुताओं को हँसकर सह ले -
-हँसकर पीता हूँ गरल / होता जाता हूँ तरल / जीना लगता है सरल -81
स्वामी जी का दीर्घ और सात्त्विक जीवन अनुभव सचमुच चमत्कृत करता है। दीपक तभी तक जलता है जब तक बाती और तेल हैं । यही नहीं , सार्थक जीवन जीने के लिए ज़मीन से जुड़ना बहुत ज़रूरी है-
-उड़ने को नभ तक उड़ा / जन्मा वसुधा पर मनुज / किन्तु न वसुधा से जुड़ा -51
कामनाओं का घटाटोप आदमी को चैन से नहीं बैठने देता । एक कामना पूरी हुई नहीं कि दूसरी जाग्रत हो उठती है । कवि के अनुसार शान्त और अक्लान्त जीवन जीने के लिए कामनाओं के जाल से मुक्त होना अनिवार्य है-
-सूखे पत्ते की तरह / जब झर जाए कामना / सफल तभी हो साधना -74
लेकिन मानव की तृषाएँ अनन्त हैं ; जो न बुझती हैं ,न मरती हैं-
-मर जाए मानव भले /इच्छा मरती ही नहीं / यह हर पल फूले -फले - 97
भँवर में घिरा उत्साही व्यक्ति उतना परेशान नहीं; जितना किनारे पर बैठा असन्तुष्ट जीवन- दर्शन अपनाने वाला व्यक्ति है । दोनों के दृष्टिकोण में अन्तर है । जो किनारे पर बैठा है , उसका असन्तोष ही उसके दु:ख का कारण है -
-हमको घेरे है भँवर / पास तुम्हारे तीर है / फिर भी तुमको पीर है -94
आज के स्वार्थपूर्ण जीवन में व्यक्ति तब ज़्यादा दु:खी होता है , जब वह अपनों के बीच में बेगानापन महसूस करता है । घर का अपनत्व-भरा आदर्श ध्वस्त हो चुका है -
-अपने ही घर में अगर / आप अतिथि बनकर रहें / कैसे घर को घर कहें ?-95
उसके पास बचती है केवल घुटन , जो उसे न जीने देती है , न मरने देती है । कवि ने इस व्यथित करने वाले अनुभव को बहुत ही सूक्ष्मता से अभिव्यक्त किया है -
-मनुज जिए तो क्या जिए / जीवन में इतनी घुटन / मानस में इतनी चुभन ! -95
परहित और परमार्थ ही वे संजीवनी हैं ; जो साधारण मनुष्य को महामानव बनाती हैं ।बादल के रूप में यही गुण सच्चे मानव का भी होता है-
-बादल ऐसा पीर है / बरसाकर मधु नीर जो / भू की हरता पीर है -36
इसका और उदात्त रूप इन पंक्तियों में अमृत बनकर बरस पड़ता है ; जो संन्यासी कवि मन के पावन चिन्तन का ही प्रक्षेपण हो सकता है-
- भाव यही मन में जगे - / धरती पर प्रत्येक का / दर्द मुझे अपना लगे -37
यही नहीं कविमन की पावनता और भी अधिक भावोद्रेक के साथ प्रकट होती है -
-मुझे हुआ यह भान है / हर दु:ख रखूँ सहेजकर / हर दु:ख रत्न समान है -54
प्यार , जीवन का सार है । कवि ने प्यार का मापदण्ड बताया है-
-दु:ख में आए याद वह / जिसको हमसे प्यार है / यही समय का सार है -41
प्यार का दूर हो जाना सपनों का बिखर जाना नहीं तो क्या है ! इस सांसारिक सत्य को बहुत मार्मिक शब्दों में तन्मयता से पिरोया है-
आप हुए क्या दूर हैं / दो ही दिन में हो गए / सपने चकनाचूर है -55
और यदि मन में प्रेम है तो हर कदम पर खुशियाँ बिखरी मिलेंगी -
प्रेम अनूठा राग है / प्रेम -राग मन को छुए / तो पग-पग पर फाग है -80
इन सब अनुरागी भावनाओं के चित्रण में कवि अपने सामाजिक सरोकारों से न विमुख हुआ और न दायित्व की अनदेखी ही की है । कवि को चिन्ता है -भारत के भावी बचपन की , उस बचपन की जो शिक्षा के उजाले से कोसों दूर है । इन पंक्तियों में यह चिन्ता बहुत तीव्रता से अभिव्यक्त हुई है -
-अब बचपन के हाथ में / बीड़ी -गुटका -पान है / मेरा देश महान है -47
-बाल दिवस के नम पर /विज्ञापन ढेरों मगर /बाल सभी हैं काम पर -68
कवि को कृषक भी चिन्ता है । जीवन के कटु यथार्थ कवि के दृष्टि-पथ में हैं-
-कृषक हँसे तो क्या हँसे / खेत नहीं है जब हरा / नभ को ताके है धरा -38
मानवीय दुर्बलता की ओर संकेत करते हुए कवि ने कटु यथार्थ को भी प्रस्तुत किया है-
-दर्पण को रख सामने / आँख स्वयं से तू मिला /हृदय लगेगा काँपने -68
‘मैं कितने जीवन जिया’ में एक ओर जीवन के सभी रंग समाहित हैं , दूसरी ओर कवि का छन्द पर अधिकार उनकी कवित्व -शक्ति का अहसास कराता है । आपने चण्डिका छन्द के तीन चरण में ही अपने नए ढंग से जो प्रस्तुति की है ,वह श्लाघ्य है । परम्परागत छन्दों में किंचित् परिवर्तन करके बहुत से यशकामी कवि अपना नाम जोड़ लेने की होड़ में लगे हैं । डॉ श्यामानन्द सरस्वती जी ने स्वयं को उस भीड़ से अलग रखा है । भाषा और अलंकारों पर आपकी पकड़ नज़बूत ही नही वरन् सहज भी है । ‘पीर’ शब्द का प्रयोग देखिएगा -
-बादल ऐसा पीर है / बरसा कर मधु- नीर जो / भू की हरता पीर है -36
इस छन्द की पहली और तीसरी पंक्ति में आद्यन्त स्वरानुरूपता का उदाहरण कवि के कौशल का साक्षी है-
-शूल छाँटते हम चलें / आएँ हैं तो भूमि पर / फूल बाँटते हम चलें -36
केवल छन्द की जोड़-तोड़ करके काव्य -रचना नहीं हो सकती है । प्रवाहमयी भाषा ही छन्द के गौरव को बढ़ाती है । स्वामी जी भाव-भाषा और छन्द की त्रिवेणी हैं ; जिसका अनुपम उदाहरण-‘ मैं कितने जीवन जिया’ में दृष्टिगोचर होता है ।
स्वामी जी का यह त्रिवेणी संग्रह रसज्ञ पाठकों के लिए तपती लू में शीतल छाया की तरह है । आशा करते हैं कि यह नव चण्डिका छन्द पर आधारित एक हज़ार त्रिवेणियों वाली आपकी यह कृति पूर्व कृतियों की तरह सराही जाएगी ।
मैं कितने जीवन जिया ! -डॉ. स्वामी श्यामानन्द सरस्वती ‘ रौशन’ ; प्रकाशक : अमृत प्रकाशन ,1 / 5170, लेन नं 8 , बलबीर नगर शाहदरा , दिल्ली-110032 ; प्रथम संस्करण:2012 , मूल्य : 175 रुपये ( सज़िल्द) , पृष्ठ: 112
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