1-सीढ़ी
डॉ.सुषमा गुप्ता
सीख तो सकते थे हम भी
ज़माने का चलन
पर ये हम से हो न सका ।
अब लोग ज़मीं नहीं
इंसानों को बिछाते हैं
पैर जमाने के लिए
और सीढ़ियों की कोई अहमियत नहीं
बस चंद लोग चाहिए ,
गिराके खुद को ऊँचा उठाने के लिए ।
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2-दरिया थे हम
मंजूषा मन
दरिया थे हम
मीठे इतने
कि प्यास बुझाते,
निर्मल इतने कि
पाप धो जाते।
अनवरत बहे
कभी न थके
निर्बाध गति से
भागते रहे,
सागर की चाह में
मिलन की आस में
न सोचा कभी
परिणाम क्या होगा।
अपनी धुन में
दुर्गम राहें
सब बाधाएं
सहते रहे हँस के,
और अंत में
अपना अस्तित्व मिटा
जा ही मिले
सागर के गले।
पर हाय!!!
स्वयं को मिटाया
क्या पाया?
ये क्या हाथ आया?
कि
खारा निकला सागर,
खाली रह गई
मन की गागर।
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