पथ के साथी

Friday, June 30, 2023

1338

 

1- अबूझ पहेली/ अर्चना राय

 


न! जाने क्यों....

कविता मेरे लिए सदा

एक अबूझ पहेली- सी

लगती रही है...

 

रचने वाले महाकाव्य

कविता पर...

न जाने कितने-कितने

उपनामों से

इसे सजाते रहे हैं...

कोई इसे जीवन साधना

कहता है तो...

कोई जीवन का सार बताता है

कोई तो

जिजीविषा का

आधार समझाता है...

कोई आदमी की परिभाषा ..

तो कोई राह का जलता दिया- सा बताता है...

 

पर न जाने क्यों..

मुझे तो कविता में

 ऐसा कुछ कभी नजर

 आया ही नहीं...

 

 शायद...इसलिए...

मेरे लिए कविता

 एक अबूझ पहेली -सी

 दूर की कौड़ी- सी लगी

 

कविता के लिए

विद्वानों की दी उपमाओं को

मानने, उनके कहे का मर्म

जानने  ,..कविता के

 जरा नजदीक नजर की तो

बड़ा आश्चर्य, बड़ा अचरज

हुआ...क्योंकि कविता तो

वह थी ही नहीं

जैसा इन साहित्यिक विद्वानों

ने बताया था...

 

मुझे तो इसका एक अलग

ही संसार नजर आया

मैंने देखा....

कविता... दुग्धपान करते हुए

 नवजात का अपनी माँ

को देखकर भरी किलकारी- सी

तो कभी....

माँ चिड़िया के संग

पहली बारिश के

पानी में किलोल

करता उसके नन्हे छोने-सी

 

तो कभी..

प्रेमी की एक झलक पा प्रेयसी के

चेहरे पर उतर आई लालिमा सी

तो कभी

अलसुबह घास के तिनकों

पर जमीं लजाई ओस सी

 जिसे दिनकर सभी से

 नजरें चुराकर समेट लेता है

नजर आई....

और हाँ...

अब मुझे कविता!

 एक अबूझ पहेली -सी नहीं

 बचपन की सखी -सी नजर आती है...

 --0-

2-मेरी सखी गौरैया / सुरभि डागर

 


 आँगन बुहारते ही

आ बैठी मेरी सखी

हाँ गौरैया मेरी सखी

भोर में मुँडेर पर आ

चहचहाने लगती

पुकारने लगती है मुझे

खिल उठता है रोम-रोम

मीठे राग से ,बहलाने लगती

हैं मेरे चंचल मन को ।

फुदक कर तर आती है आंगन में

दाना चुगती और फुर्र से उड़ जाती

दे जाती हर रोज़ एक उम्मीद

उत्साह और नई राह जीवन

को जीने की।

कभी साँझ को ले जाती आँगन से

तिनके अपने घर की मरम्मत के लिए

कभी पेड़ो की पत्तियों को चीरती

महीन और लेकर उड़ जाती।

कभी ले जाती दाना चोंच में

बच्चों के लिए।

बनी फिरती मुखिया अपने घर की

निभाती बखूबी अपने किरदार को

और सुन लेती मेरे‌ भावों को बड़े

चाव से और चूँ-चूँ बन जाती

 मेरी सखी

-0-

3-मेघा राठी


1

प्यार नहीं है

 किताबी बातों का आधार।

प्यार नहीं है

साधु- संतो की बातों का

प्रामाणिक रूप।

प्यार नहीं है

किसी सिद्धांत पर आधारित

कोई व्याख्या या आलेख।

प्यार वो भी नहीं

जो परिस्थियों पर आधारित

और किंतु- परंतु की शर्तों में

निभाया जा रहा हो।

प्यार सिर्फ प्यार है

जो हृदय से जन्म लेता है

और स्वतः ही

हृदय में अनेक पुष्प

खिला देता है

प्रति दिन–प्रति पल।

किंतु

प्रेम के इन पुष्पों के

बीज अंकुरित करने के बाद,

इनको भी यत्न पूर्वक

सहेजना होता है

अन्यथा,

उपेक्षा की धूप,

अनबोलेपन की दीमक

और बेपरवाही की

अमरबेल,

इनको कुम्हलाकर

जला देती है।

प्यार सिर्फ प्यार है,

पर प्यार शून्य

भी नहीं जहां

करीब आकर

किसी ब्लैक होल

में भटकने के लिए

छोड़ दिया जाय

अनंतकाल तक प्रेम को।

2

मैं आऊँगी तुम्हारे पास

जब विगत की कटु स्मृतियों के

सभी चिह्न मिट जायेंगे

मेरे भाल की लकीरों

और मन के गलियारों से

तब

जब पुनः गुनगुनी धूप सी

खिकर , हरित पत्रों पर

अल्हड़- सी मैं

नृत्य कर सकूँगी

कोमलता से

तब

ऊँगी मैं तुम्हारे पास।

जब मेरे नेत्र

रतनारी हो

कुमुदिनी सम

विहस सकेंगे

मेरे ओष्ठ पर रखी

स्मित की कतार की तरह

 तब

ऊँगी मैं तुम्हारे पास।

कोरे पृष्ठ- सा हृदय

जब नेह की स्याही

में मोरपंख डुबोकर

तुम्हारे नाम के

पद्य सृजित करने लगेगा

और गाने लगेगा

श्रुतियाँ तुम्हारी

तब

ऊँगी मैं तुम्हारे पास।

तुम प्रतीक्षा करना

मरुस्थल में उगे

कैक्टसों पर पुष्प

खिलने का

क्योंकि जब वे

विकसित होंगे

तभी मेरा अंतस्

भी हरसिंगार सा

सुगंधित होकर

प्रसून बिछा देगा

तुम्हारे लिए

तब मैं आऊँगी तुम्हारे पास

तुम्हें अपने हृदय के

आसन पर

विराजित करने के लिए

तुम

आओगे न तब?

-0-

4-अनिता मंडा

 


1.पिता

 

पिता तो जैसे पहाड़ हैं

नदी उनके भीतर से निकलती है

 

पिता चाहते हैं वह चट्टान बनें हम

जिस चट्टान पर गिरकर पानी

बनता है झरना

 

पिता वह दीवार हैं

जो पलायन के विरुद्ध उठती है

दुनिया की तरफ पीठ किए हुए

 

पिता वह बाग़ हैं जहाँ

फूलों के साथ काँटों से इनकार नहीं

पिता सुरों में बिखरते हैं

सुरों में महकते हैं

सुरों को समेटते हैं

कि जीवन बेसुरा न रहे

 

पिता ऊँटगाड़ी के युग से आ

फिर भी तकनीक के आकाश में

विचरते हैं

 

पिता ने जड़ें गहरी दी हमें

फिर भी एक कसक उठती है कि

आकाश कुछ कम दिया

 

यह शिकायत करते हुए

मन यह भी जानता है कि

हर उड़ान के लिए पाँवों के लिए

ज़मीन ज़रूरी है

 

पिता के माथे की सिलवटों में

अनुभवों की दास्तानें दर्ज़ हैं

पिता अधिक नहीं बताते

संघर्षों की कहानियाँ

उन्हें ख़ामोशी से समझना होता है

 

पिता वो पगडंडी हैं जिस पर

इल्म का सब्ज़ा है

उम्मीद हैं

ज़मीन आकाश बारिश हवा

सब हैं पिता।

2

कानों में गूंज रही है राग भैरवी

आवृत्तियों में तैरती स्वर लहरियाँ

आरोह अवरोह

के.एल. सहगल

भीमसेन जोशी

-‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय

वाजिद अली शाह

नैहर छूटने की शिकायत

बाबुल से न करें तो

किससे करें

पिता समुद्र हैं

शिकायतों का नमक सहेजे हुए।

-0-