पथ के साथी

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Friday, May 30, 2025

1468

 

विजय जोशी

 (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल )

 


1

प्यार तो एक फूल है

फूल तो एक प्यार है

हम- तुम :

इसकी दो पंखुरियाँ हैं

समय रहते न रहते

पंखुरियाँ झर जाएँगी

शेष रह जाएगी

महक :

हमारे- तुम्हारे प्यार की

दिल के इसरार की

मन के इकरार की

जो रच- बसकर वातावरण में

छा जाएगी अरसों तक

महकेगी बरसों तक

प्यार तो एक फूल है .....

-0-

2-मैं हूँ ना !

 


भयावह आँधी

प्रबल झंझावात

उखड़ते महावृक्ष

विपथगा महानदियाँ

घनघोर अँधेरी रात

श्मशान- सा समाँ

 

वृक्ष के कोटर में डरा- सहमा

चिड़िया का नन्हा बच्चा

डर से काँपता, माँ से बोला :

माँ ! हमारा क्या होगा

 

माँ ने अपने पंखों में

उसे समेटते हुए कहा :

डरो मत, मैं हूँ ना!

-0-

Friday, October 18, 2024

1437-रतन टाटा : संस्कृति से साक्षात्कार

 

विजय जोशीपूर्व ग्रुप महाप्रबंधकभेल

  जीवन में आगमन से पूर्व एवं पश्चात् दो आयाम ऐसे हैं, जो आदमी के जीवन की दशा और दिशा दोनों निर्धारित करते


हैं। इनमें से पहला है- विरासत जिसे आप संस्कार या मूल्यों की थाती कह सकते हैं तथा दूसरा है- आपकी मानसिकता, जो आपके आचरण का आधार है। पहला ईश्वर प्रदत्त है, जबकि दूसरा आपके अपने हाथ में है और इसका आपकी पदप्रतिष्ठापैसे से कोई लेना देना नहीं। यह आवरण के अंदर अंतस् की खोज का सफ़रनामा है। इसके साकार स्वरूप को स्वीकार कर संस्था हितार्थ उपयोग का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत होता है टाटा समूह के सोच में जो इस प्रकार है :

·        26/11 को ताज होटल में घटित आतंकी हमले के दौरान कर्मचारियों ने कर्तव्य का जो उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया, उसकी सराहना हार्वर्ड विश्वविद्यालय तक में एक केस स्टडी रूप में समाहित की गई यह जानने के लिए कि क्यों टाटा कर्मचारियों ने डरकर भाग जाने के बजाय कार्यस्थल पर ही रहकर अतिथियों की रक्षा करने के लिए अपनी जान तक की बाजी लगा दी। उन्हें सुरक्षित बाहर निकालने के जोखिम भरे काम को बखूबी अंजाम दिया। यह वह पहेली थी, जिसे मनोवैज्ञानिक तक समझ पाने में असफल थे। अंतत: जो निष्कर्ष निकले, वे इस प्रकार थे।

1-  ताज समूह ने बड़े शहरों से अपने कर्मचारी चुनने के बजाय उन छोटे- छोटे शहरों पर ध्यान केन्द्रित किया, जहाँ पर पारंपरिक संस्कृति आज भी दृढ़तापूर्वक सहेजी गई है।

 2-  टाटा ने चुनने की प्रक्रिया में केवल टापर्स को वरीयता न प्रदान करते हुए, उनके शिक्षकों से यह जानना चाहा कि उनके छात्रों में से कौन- कौन अपने अभिभावकोंवरिष्ठजनशिक्षकों तथा अन्य के साथ आदरपूर्ण व्यवहार करते हैं।


3-
 भर्ती के पश्चात् उन्होंने नवागत नौजवान कर्मचारियों को यह पाठ पढ़ाया कि कंपनी के मात्र कर्मचारी बनाने के बजाय वे कंपनी के सामने अपने अतिथियों के सांकृतिक राजदूतशुभचिंतक तथा हितचिंतक बनाकर पेश हों।

 4- यही कारण था कि 26/11 आतंकवादी हमले के दौरान जब तक समस्त अतिथियों को सावधानीपूर्वक बाहर नहीं निकाल लिया गयाएक भी कर्मचारी ने उस कठिनतम परिस्थिति में जान बचाने के लिये बाहर निकालने या भाग जाने की कोशिश नहीं की। इस तरह मूल्यपरक प्रशिक्षण का ही प्रभाव यह रहा कि टाटा- समूह आज सारे संसार के सामने एक मिसाल बनाकर खड़ा है, जहां होटलिंग एक प्रोफेशन या व्यवसाय न होकर एक मिशन अर्थात् विचार के पर्याय की भाँति स्थापित है। यह सोच पूरे संसार के सामने पर्यटन उद्योग के लिए सीखकर अनुपालन के लिए अब तक का सबसे बड़ा उदाहरण है।   

 भलाई कर भला होगा बुराई कर बुरा होगा

कोई देखे न देखे पर ख़ुदा तो देखता होगा 

 -0-

 

Wednesday, July 24, 2024

1425- पक्षी प्रसंग : तुलना से करें तौबा

 

 पक्षी प्रसंग : तुलना से करें तौबा

  विजय जोशी, पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल

√) हम में से हर आदमी अपने विशिष्ट गुणों के साथ जन्मा है। इन जन्मजात गुणों की


अभिवृद्धि एवं सदुपयोग ही हमारे जीवन का प्रयोजन होना चाहिए। इसी तरह हम में कुछ कमजोरियां भी जन्मजात होती हैं। हमारा ध्येय उन पर काबू करने या उनसे छुटकारा पाने का होना चाहिए।

√) एक वन में रहना वाला कौआ श्वेत हंस की तुलना में अपना रंग देखकर दुखी हो गया तथा हंस से अपनी व्यथा बाँटी। तब हंस ने कहा - मुझे तो तोते से ईर्ष्या होती हैक्योंकि वह दो रंग का है। मुझे लगता है कि उसे संसार का सबसे सुखी प्राणी होना चाहिए।

  √) कौए ने तोते को तब उस बात पर बधाई दी तो जो उत्तर मिला वह था - मैं सचमुच में सुखी थालेकिन केवल तब तक  जब तक कि मैंने मोर को नहीं देखा। जो न केवल बहुरंगी है। अपितु अत्यधिक सुंदर भी है. और तब उस कौए ने मोर से मिलने की ठानी। वह चिड़ियाघर पहुँचा तथा भीड़ के छँटने की प्रतीक्षा करने लगा। 

 


√) जैसे ही अवसर मिला उसने मोर को बधाई दी। लेकिन खुश होने के बजाय मोर ने अपनी व्यथा कौए को सुनाई। मुझे भी पहले यही लगता था: किंतु सत्य तो यह है कि अपनी उसी सुंदरता के कारण मैं आज इस चिड़ियाघर में कैद हूँ। मैंने हर एक बात का गहराई से परीक्षण किया और इस परिणाम पर पहुँचा कि कौवा एक मात्र ऐसा प्राणी है, जो उन्मुक्त और स्वच्छंद हैकिसी की कैद में नहीं। यदि मै भी कौआ होता तो आज स्वाधीन होताप्रसन्न होता। 

  √)  इस प्रसंग से उस कौए की आँखें खुल गईं। उसका सारा अवसाद एवं दुख पल भर में ही तिरोहित हो गया और मन हल्का। उसने ईश्वर को धन्यवाद दिया।

  √)  मित्रो! यही हमारी भी त्रासदी है। हम अनावश्यक रूप से दूसरों से स्वयं की तुलना करते हुए दुखी रहा करते हैं और इस तरह अपने आस पास दुखनिराशा और अवसाद का जाल बुन लेते हैं। इसीलिए, जो मिला है उसी में सुखी रहने का प्रयत्न कीजिए। हर एक को सब कुछ नहीं मिला करता है। आपके निकट का हर आदमी आप से कुछ मायनों में अच्छा और कुछ अर्थों में कमतर होगा। तो फिर किस बात की तुलना और किस बात का दुख। तुलना करने की तुला से नीचे उतरकर जीवन को सार्थक बनाइए।

थोड़ी बहुत कमी तो यहाँ हर किसी में है

दरिया भी खूबियों का मगर आदमी में है।

 

Saturday, May 18, 2024

1417-भक्ति की महिमा

विजय जोशी

 

- जब भक्ति भोजन में प्रवेश करती है,

भोजन प्रसाद बन जाता है।

- जब भक्ति भूख में प्रवेश करती है,

भूख तेज़ हो जाती है,

- जब भक्ति जल में प्रवेश करती है,

जल चरणामृत बन जाता है।

- जब भक्ति यात्रा में प्रवेश करती है,

यात्रा तीर्थयात्रा बन जाती है,

- जब भक्ति संगीत में प्रवेश करती है,

संगीत कीर्तन बन जाता है।

- जब भक्ति घर में प्रवेश करती है,

घर मंदिर बन जाता है,

- जब भक्ति कर्म में प्रवेश करती है,

क्रियाएँ सेवाएँ बन जाती हैं।

- जब भक्ति कार्य में प्रवेश करती है,

काम बन जाता है कर्म,

और

- जब भक्ति मनुष्य में प्रवेश करती है,

इंसान इंसान बन जाता है।

 

Tuesday, May 14, 2024

1416-दीक्षांत समारोह : आडंबर का अंत

 

विजय जोशी

पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल  

       शिक्षा एक तपस्या है। साध्य है, साधन नहीं। इसे पूरे मन से समर्पण के साथ जीने का मानस ही मस्तिष्क की


स्वस्थता का सूचकांक है। इस क्षेत्र में भोंडे प्रदर्शन या समय की बर्बादी का कोई स्थान नहीं। आवश्यकता है, तो हर पल के सार्थक उपयोग की। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ छात्रों के आधे दिन तो कालेज की छुट्टियोंपरीक्षाओं एवं समारोहों में ही गुजर जाते हैं पश्चिम के सर्वथा विपरीत, जहाँ मुझे अमेरिका के कोलंबिया स्थित एक विश्वविद्यालय –‘यूनिवर्सिटी ऑफ मिसौरी के दीक्षांत समारोह में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। एक अविस्मरणीय अनुभव जो इस प्रकार था। 
1-आयोजन संध्या 6 बजे आयोजित किया गया था। कारण, यह कि दिन में सब अपने निर्धारित कार्य करते हैं; ताकि आम जन को कोई दिक्कत न हो। समारोह को दैनिक सामान्य कार्य- प्रणाली में बाधक बनना अस्वीकार्य है।

2- कार्यक्रम का समय प्रबंधन अद्भुत। पहले 15 मिनट सोशलाइज़िंग के (6.15 – 6.30)फिर डिनर (6.30 – 7.00) एवं तत्पश्चात् समारोह का शुभारंभ।

3-डिनर सर्विस अनुपम। पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर सबने एक लाइन में लगाकर अपनी प्लेट सजाई। कोई वी आई पी नहीं। सब एक समान।

4-भोजन की प्लेट लेकर जब सजी सजाई टेबिल पर पहुँचे, तो पहले से कार्यक्रम के विवरण  का एक ब्रोशर रखा पाया, जिसमें उपाधि प्राप्तकर्ताओं के साथ उनके गाइड के नाम अंकित थे।

5-न कोई मुख्य अतिथि और न ही वी आई पी की फौज। केवल विश्वविद्यालय के प्रोफेसरछात्र व स्टाफ।

6- मंच जमीन से लगभग दो फीट ऊँचा, सुरुचिपूर्ण तथा अनावश्यक सजावट से रहित एक पोडियम सहित। मंच पर कोई कुर्सी टेबल नहीं।

7- कोरी भाषणबाजी से परहेज। संचालनकर्ता महिला द्वारा पूरी तरह प्रोफेशनल संचालन, अनावश्यक अतिरंजना से परे।

8- हर शोधार्थी को गाइड से साथ मंच पर आमंत्रित करते हुए उनकी उपलब्धि की प्रस्तुति और उपाधि प्रदान करने की रस्म।

9- सभागार में उपस्थित अभिभावकों एवं जन समूह द्वारा खड़े होकर करतल ध्वनि से अभिनंदन।

10-कार्यक्रम के दौरान वातावरण पूरी तरह दोस्ताना एवं अनौपचारिक। लोग बेहद सज्जनसभ्य एवं सौम्य।

11 कार्यक्रम तयशुदा समय, यानी ठीक 9.15 पर समाप्त। सब आमंत्रित अतिथियों द्वारा बगैर किसी धका-मुक्की  के अपने वाहनों द्वारा खुद अपनी कार चलाकर घर के लि प्रस्थान, ताकि अगली सुबह समय से अपने कार्यस्थल पर पहुँच सकें।

        अब इसकी तुलना कीजि अपने यहाँ से। हफ्तों पूर्व सब काम बंदभव्य मंचअनावश्यक खर्च। पूरा सम्मान नेता, मंत्री या अफसरों कोशोधार्थी दोयम दर्जे पर। शिक्षा जैसी पावन तथा पवित्र हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था तो चाटुकारिता की बंधक। एक दौर के गुरुकुल सदृश्य नई पीढ़ी को गढ़ने का माद्दा रखने वाले  सम्माननीय शिक्षक तो अब व्यक्तिगत स्वार्थ के परिप्रेक्ष्य में खुद बन गए हैं नेता और ब्यूरोक्रेसी के चरणदास सब कुछ राग दरबारी संस्कृति को समर्पित।  काश अब हम भी कुछ सीख सकें। रामायण काल के उस समय की कल्पना को फिर साकार कर सकने का सपना सँजो सकें, जब होता था ऐसे :  

गुरु गृह गए पढ़न रघुराई

अल्प काल विद्या सब पाई

-0-


 

 

 

 

Saturday, May 4, 2024

1414-दया धर्म का मूल है

  विजय जोशी  


 पूर्व ग्रुप महाप्रबंधकभेलभोपाल (म. प्र.)

जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू

सो तेहि मिलहि न कछु संदेहु

धर्म कोई शिष्टाचार रूपी पाखंड का प्रतिरूप नहीं है;  इसीलिए तो शास्त्रों में उसकी तदनुसार व्याख्या भी की गई है - धारयति इति धर्मम् अर्थात् जो भी धारण करने योग्य है, वह धर्म है। आदमी जब बड़ा होता है, तो दूसरों को तुच्छ तथा स्वयं को श्रेष्ठ न माने। यह मूल तत्त्व है। वस्तुत: उसे तो ईश्वर का आभारी होना चाहिए कि उसे सेवा का अवसर प्राप्त हुआ।

दया धर्म का मूल हैपाप मूल अभिमान

तुलसी दया न छांड़िये, जब लग घट में प्राण।

धीर गंभीर राम के मन में प्रजाजनों के लिये दया कूट कूट कर भरी हुई थी; इसीलिए उन्हें दया निधान भी कहा गया है। उन्होंने कभी भी सेवकों को आहत नहीं किया; वरन अपनी आकांक्षा को दबाकर उनका मान रखा। उनकी दृष्टि में तो न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। न कोई नीच और न कोई उच्च। शबरी एवं केवट इसके साक्षात् उदाहरण हैं। वन गमन के दौरान जब वे गंगा तट पर आए, तो नदी पार करने हेतु उन्हें नाविक की आवश्यकता पड़ी।  उन्होंने केवट से निवेदन कियालेकिन उन्हीं के भक्त केवट ने प्रथम दृष्ट्या उनका अनुरोध स्वीकार नहीं किया

माँगी नाव न केवटु आना

 कहई तुम्हार मरमु मैं जाना

चरन कमल रज कहुं सबु कहई

 मानुष कराने मूरि कछु अहई

केवट ने कहा -आपकी चरण धूल से तो अहल्या पत्थर से स्त्री हो गई थी। फिर मेरी नाव तो काठ की है एवं मेरी आजीविका का एकमात्र सहारा ते। यदि यह स़्त्री हो गई, तो मैं जीवन निर्वाह कैसे करूँगा। प्रसंग बड़ा ही मार्मिक था। केवट ने आगे कहा कि जब तक मैं आपके पैर पखार न लूँनाव नहीं लाऊँगा। राम बात का मर्म समझ गए और सेवक की बात शिरोधार्य करते हुए बोले -

कृपासिंधु बोले मुसुकाई

 सोई करूँ जेहिं तव नाव न जाई

बेगि आनु जब पाय पखारू

होत विलंबु उतारहि पारू

बात का महत्त्व देखिए जिनके स्मरण मात्र से मनुष्य भवसागर पार उतर जाते ,  जिन्होंने 3 पग में पूरे ब्रह्मांड को नाप लिया थावे ही भगवान केवट जैसे साधारण मनुष्य को निहोरा कर रहे हैं और अब आगे देखिए, यह सुन केवट के मन में कैसे आनंद की हिलोरें आकार लेने लगीं और वह चरण पखारने लगा।

 

अति आनंद उमगि अनुरागा

चरण सरोज पखारन लागा

पार उतारकर केवट ने दण्डवत्प्रणाम किया और जब राम की इच्छा जान सीता ने उतराई स्वरूप रत्नजड़ित अँगूठी देने का प्रयास किया, तो उसने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया और कहा - आज मेरी दरिद्रता की आग बुझ गई है। मैंने बहुत समय तब मजदूरी की और विधाता ने आज भरपूर मजदूरी दे दी है। हे नाथ आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरे

 दीनदयाल अनुग्रह चौरे

फिरती बार मोहिजो देबा

 सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा

मित्रो! यही है दया का सच्चा स्वरूप, जो प्रेम में परिवर्तित हो सारे भेद मिटा देता है। आदमी के मन में गहरे उतरकर दिल को दिल से जोड़ देता है। न कोई लेन देनन कोई स्वार्थ केवल निर्मलनिस्वार्थ प्रेम। सारे धर्मों का यही संदेश है

अत्याचारी कंस बन मत ले सबकी जान

दया करे गरीब पर वो सच्चा बलवान

-0-v.joshi415@gmail.com

Friday, April 5, 2024

1408-महाभारत : ‘मैं’ से मुक्ति

                   - विजय जोशी, पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल

 


       पौराणिक प्रसंग किसी भी धर्म ग्रंथ में समाहित हों, उनकी प्रासंगिकता स्वयं सिद्ध है। इनमें एक ओर जहाँ सरल भाषा में अपनी बात आम जन तक पहुँचाने का भाव होता है, वहीं दूसरी ओर मंतव्य भी। इस दौर में कहें, तो शाब्दिक प्रसंग हार्डवेयर तथा संदेश सॉफ्टवेयर। सो एक मित्र से प्राप्त अद्भुत विचार।

        महाभारत ग्रंथ से सभी परिचित हैं। यह मात्र दो परिवार या दो विरोधी संस्कृतियों के टकराव में सत्य के विजय का मंत्र ही नहीं, अपितु अंतस् के युद्ध का सफ़रनामा भी है।  आइए इसे पात्रों के माध्यम से समझा जाए : 

 1-धृतराष्ट्र: यह है हमारा मस्तिष्क, जो सारी सूचनाओं को संगृहीत कर सोच को कार्यरूप में परिवर्तित करता है। निर्भर हम पर करता है कि अपने विवेक से सही निर्णय लेते हैं या स्वार्थनिहित फैसला।


 2 संजय: हमारे वे मित्र या शुभचिंतक, जो ठकुर सुहाती से ऊपर उठकर न केवल हमें सच्चाई से अवगत कराते हैं, बल्कि सही मार्गदर्शन भी प्रदान करते हैं।

 3- कौरव: ये हैं अंतस्में उभरने वाली मोह माया रूपी वे भावनाएं जो हमें पथभ्रष्ट करने का पूरा प्रयास करती हैं। तुच्छ स्वार्थ या बाहरी आकर्षण की परत हमारी बुद्धि के कुमार्ग से कदमताल का प्रयोजन बनती हैं।

 4- शकुनि: वे अवसरवादी मित्र, जो हमें कुमार्ग की ओर ढकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।

 5- पांडव: ये हैं हमारी पाँच इंद्रियाँ  नेत्र, नाक, जीभ, कान और त्वचा यानी दृश्य, सुगंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श, जो हमारी सहायता करती हैं नीर क्षीर उर्फ़ दूध और पानी को अलग कर निर्णय पर पहुँचने में। ईश्वर का अद्भुत उपहार बशर्ते हम इनका सदुपयोग कर सकें।

 6- द्रौपदी: हमारी नैसर्गिक प्रतिभा, इच्छा, चाह या जुनून, जो हमारी 5 इंद्रियों वाली क्षमता को एक सूत्र में बाँधकर उद्देश्य प्राप्ति के साथ ही जीवन में आनंद का प्रयोजन भी बनती है। एक बात और कि यह कौरवी माया जाल से लड़ने हेतु हमारे संकल्प का सूत्र भी बनती है।  

 7- कृष्ण: तो फिर कृष्ण क्या हैं। यह है हमारी आंतरिक चेतना< जो आजीवन हमारी सारथी बनकर साथ निभाती है। इसकी आवाज सुन कार्य करना हमारा नैतिक दायित्व और सफलता की कुंजी है।

 8- कर्ण: परिवार के अग्रज होने के बावजूद राज्याश्रय के लोभ में कुमार्ग पथिक बन काल कवलित हो गए। यही है हमारा अहंका<र जो पद, प्रतिष्ठा, पैसे की चमक मिलते ही सिर चढ़कर बोलने लगता है। कुपथ की ओर धकेल देता है। 

        अहंकार हमारे सारे गुण निगल जाता है। ईश्वर से विमुख कर देता है। कहा ही गया है EGO यानी Edging God Out हृदय में कोई एक ही रह सकता है। अहंकार आते ही ईश्वर बाहर। यदि आपने इसे समाप्त नहीं किया, तो यह आपको समाप्त कर देगा।

         कुल मिलाकर भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर में महाभारत के माध्यम से उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने का एक अद्भुत संदेश दिया है। यह केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि अनाचार, अत्याचार के विरुद्ध एक जंग है, जो हमारे चेतन और अवचेतन मन दोनों के सार्थक जीवन जीने का प्रयोजन है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम कौन सा मार्ग अंगीकार करें।

अहंकार में तीनों गए धन, वैभव और वंश ।

ना मानो तो देख लो< रावण, कौरव, कंस।

 

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