पथ के साथी

Thursday, October 28, 2021

1148

 

स्मृति का मायावी वृक्ष

- रश्मि विभा त्रिपाठी 

 

मैं बागवानी में नहीं दक्ष


और न ही किसी

वनस्पति विज्ञानी के

समकक्ष

खड़ा मेरे समक्ष

स्मृति का

एक मायावी वृक्ष

समीप ही मन-कक्ष

वातायन से देखूँ

तो इठला रहा

बोध को झुठला रहा

रात्रि-दिवस का अनुसंधान

अतीत का कुछ सामान

वे सारे तिनके,

याद आया मुझे

एक दिन

लापरवाही से

फेंक दिए थे

जो आँखों में थे तिरे

छिटक कर दूर जा गिरे

मन की मिट्टी में

सोचा कि दफ़्न हो गए

मगर वही तिनके

बीज बन

भीतर अँखुआए

और फिर लहलहाए

एक पेड़ के प्रतिरूप में

जिसकी जड़ें

मेरे अंतस्तल में

फैली हुई हैं

मैं अब समझी-

क्यों लगता है कभी

जैसे कोई मुझे बाँध रहा

स्मृति के आँगन का

मायावी वृक्ष

मुझ पर

माया का शर

साध रहा

बिंध गई हूँ

जैसे कि भीष्म

शरद्, हेमंत, ग्रीष्म

ऋतु विपरीत बदले रंग

कहीं शिशिर में

बिखरते  हो पीत पर्ण,

अनेक वर्ण

बन बसंत का दूत

बरसाए न्यारी सुगंध

खिल उठे हरसिंगार- सा

कहीं पहले प्यार -सा

तो कभी सावनी फुहार -सा

मुझे जाने क्यों खींचता

मन अकारण ही

इसे सींचता

मैं सोचती हूँ

कभी तो माया से

मुझे मुक्त कर

स्मृति का कल्पवृक्ष

मेरे बीते दुख-संताप से

देगा पूर्ण निदान

जैसे बुद्ध को

बोधिवृक्ष के तले

प्राप्त हुआ था निर्वाण।

Monday, October 25, 2021

1147

 1-दोहे

       निधि भार्गव मानवी

 1

गुरुवर  की  आराधना, करती  है  कल्याण ।


गुरु  की  आज्ञा  मान
के , शिष्य बने गुणवान ।।

2

कदम- कदम पर देखिए, झूठे लोग हजार ।

रचा हुआ हर ओर है, स्वारथ का संसार ।।

3

अन्तर्मन की वेदना, देती दिल को चीर ।

बस मन का संतोष ही, हर लेता सब पीर ।‌।

4

सरहद पर जो दे गया, लड़ते- लड़ते  प्राण ।

ऐसे वीर सपूत को, करता नमन जहान ।।

5

यदि माया में लिप्त हो, छोड़ा अपना  देश ।

अपनों से होकर विमुख, बीते जीवन शेष ।।

6

करूँ नमन गुरुदेव को, नित्य नवाऊँ शीश ।

गुरु- चरणों में दीखते ,परम पुरुष जगदीश ।।

7

हिंदी आत्मा हिंद की, करो सदैव प्रचार ।

श्रेष्ठ सभी से है सखे , हिंदी का संसार ।।

8

सखे बिगाड़े क्या भला, उनका ये संसार ।

राम -नाम के आसरे, करते जो भव पार ।।

9

होनी तो होकर रहे, समय बदलता चाल ।

कभी खुशी उर झूमती, कभी घूरता काल ।।

10

चाहे जितने ले बदल, रे मन अपने भेष ।

एक दिवस ले जायगा, काल पकड़कर केश ।।

11

हिन्दी को मत भूलिए, दो हिन्दी को मान ।

हिन्दी  इक  संगीत  है, हिन्दी मीठा गान ।।

12

माँ वाणी का ध्यान धर, रच दे कोई ग्रंथ

देगा नव पहचान रे, यह लेखन का पंथ

13

नमन तुम्हें माँ शारदे, सिर पे रख दो हाथ

भले -बुरे हर दौर में, नहीं छोड़ना साथ

14

 मधुर मिलन की रैन है, बिसराए सब काज

घूँघट  में  गोरी  खड़ी, पहन  ओढ़  के लाज

15

भीतर  मन  के  पल  रहा, एक  नया  संसार

पल प्रतिपल हिय बढ़ रहा, सपनों का विस्तार

16

गुरु चरणों की वन्दना, करती हूँ  दिन  रैन

द्वार  ज्ञान के  खोलते, गूढ़,  अमोलक  बैन

17

मतलब से दुनिया भरी, झूठी अकड़ दिखाय

निधे  मनाएँ   एक  तो , रूठ  दूसरा  जाय

18

मानव  तेरी  जाति  का , कैसा  अद्भुत  योग

ज्यों  ज्यों  बढ़ती है उमर,त्यों त्यों बढ़ते रोग

19

मैं बदली- सी बावरी,  तुम बादल- से मीत

गूँजेंगे  इक  साथ  में,  तेरे  मेरे  गीत

20

स्वप्न तुम्हारे नाम का, कर लूँ मैं साकार

क्षणभंगुर संसार में, बस तुम ही आधार

21

बनी  रहे  ये  एकता, रहे सलामत प्यार

तेरे दिल पे हो गया, अब मेरा अधिकार

22

बिखरी किरण ललाट पे , मुख चमके ज्यों धूप

वो कहते  मैं  अप्सरा, मोहक मेरा रूप

23

तुमसे अच्छा है नहीं, अब  मेरा  मनमीत

तुमसे मन में सुर बजे, तुमसे लब पर गीत

                -0-           

2-पूनम सैनी

1.


ज़रूरी कहाँ शोहरतें

भीनी-सी मुस्कान को,

बस फूलों के बागों में

उड़ती तितली काफी है।

काफी है ठोकर एक

सँभलकर चलना सीखने को;

रिश्तों की मजबूती को

इक बलिदान काफी है।

2.

आज़ादियों ने रिश्ते कब

रखे आसमानों से।

कब पंखों ने तय की है उड़ान।

मन आज़ादी का बसेरा,

हौसलों से परवाज़ है।

मंज़िलों के ख्वाब ही

र का आगाज़ है।

-0-

Thursday, October 21, 2021

1146

 प्रीति अग्रवाल

 1- समय की डोर

 

कल की सोच में

बीत रहा है,
आज का दिन
कल,
फिर आएगा,
एक और,
नए-पुराने,
कल की सोच में,
फिर लग जागा
मानो,
'आज' का
अपना कोई
वजूद ही न हो....
वह मात्र
दो 'कलों' के बीच,
विश्रामस्थली -सा हो....।

सोच में थी,
इस 'आज' को
कैसे थामूँ
इसे,
किस डोर से बाँधूँ,
कि ठहर जाए,
कुछ देर, यह
पास मेरे....

अनायास ही,
नज़र पड़ी,
अठखेलियाँ करती,
दो तितलियों पर....
पकड़म-पकड़ाई
खेल रही थी,
एक दूसरे को
उकसा रही थी,
चिढ़ा रही थी, खूब
आनंद उठा रहीं थी....
ठीक वैसे,
जैसे सहेलियाँ, अकसर,
किया करती हैं....

थक कर, हाँफती,
दोनों जा बैठी
फूलों की सेज पर
रसपान करने,
अरे लो!
वे तो फिर उड़ चलीं
इस बार,
जो पिछली बार
पीछे रह ग थी,
बड़ी चतुराई से
मुँह चिढ़ाती,
आगे निकल गई,
उन्हें देख, मेरी
हँसी भी न रुकी....
वही,
बचपन वाली हँसी,
जो,
बेबात आती थी,
बेवक्त आती थी,
बड़ी देर तक आती थी,
बहुत खुल कर आती थी....
मैं, उनकी अठखेलियों में
ऐसे खोई, कि
कुछ बोध न रहा....
न बीते कल का,
न आने वाले कल का.....!

वे दोनों,
जाते -जाते,
मेरे हाथों,
'आज' की डोर,
थमा गईं!!

-0-


मेरे हँसने पर हँसते हो
रोने पर रोते,
कहो तो सही
तुम मेरे कौन हो....
मेरे पूछने से पहले,
आईना, पूछ बैठा....!!
3
है खुद की प्यास मिटानी तो,
दूजे को नीर पिलाओ.....
मिटेगी तृष्णा ऐसे ही,
एक बार तो, आज़माओ!
4
कहने को यूँ तो
था बहुत, पर
क्या कहूँ....
कैसे कहूँ.....
किससे कहूँ....
कहूँ, न कहूँ....
इस सोच में
उलझी रही....
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी ठहरी
क्यों रुकती,
चलती रही....!
5
तुम संग बीते लम्हें
काश! समेट पाते....
नर्म, मुलायम इतने,
हाथों से फिसले जाते....!
6
ये लोग
जो चले जाते हैं,
जाते हैं कहाँ....
पूछते उन्हीं से,
जो लौटते,
वो यहाँ..!
7
पहुँचने की तुम तक
है कैसी लगन...
हर वक्त यूँ लगे, कि
सफर में हैं हम....!
8
हम दोनों की मंज़िल,
हम दोनों ही हैं....
सफर खूबसूरत,
यूँही नहीं.....!!
9
था लम्बा सफर
पर मैं न थकी...
थकी, तो बस,
तुझे, मना मना थकी!
10
जज़्बात को मेरे
समझते वे कैसे.....
बातें ही मेरी,
समझ वे न पाए...!
11
ज़िन्दगी में साल, चाहे
जितने भी हो......
हर साल में, बस,
ज़िन्दगी चाहिए ! 

Friday, October 15, 2021

1145

 काया भंगुर, मृत्यु अटल है

सूर्य कुलश्रेष्ठ


काया भंगुर, मृत्यु अटल है,


जीवन ही संघर्ष पटल है।
कर्म पथ पर जीत न हो,
किंचित भी भयभीत न हो।
अवरोधों से डरना क्या?
समर भूमि में मरना क्या?
साहस रख तू आगे बढ़ ,
कर्मयोगी बन कर तू प्रण।
पुरुषार्थ की ही सिद्धि हो,
तन भले ही मिट्टी हो।
तब श्वासों का कोई मतलब है,
यही मृत्यु पूर्व परमपद है।


-0-

Wednesday, October 13, 2021

1144-शक्तिस्वरूपा

 रश्मि विभा त्रिपाठी 

1
शक्तिस्वरूपा


स्तुति कल्याणकारी
है भयहारी
तप औ आराधन
माँ मुक्ति का साधन ।
2
नित आह्वान
शुचिता धरे ध्यान
आरती- गान
गाते हैं मन- प्राण
माता करो कल्याण।
3
नहीं जानती
व्रत- पूजा- विधान
माँ मैं अजान
श्रद्धा- दीप से करूँ
तुम्हारा स्तुति- गान ।
4
पाठ,  स्तवन
मंत्रोच्चार, हवन
माता मैं व्रती
न जानूँ पूजा- विधि
स्वीकारो श्रद्धा- निधि ।
5
पूर्ण कामना
कृतकृत्य भावना
माता- वंदन
भगाए बाधा- बला
धन्य ! 'सर्वमंगला'
6
आरती गाऊँ
आस्था- दीप जलाऊँ
मैं अकिंचन
माँ क्या करूँ अर्पण
वारूँ भाव- भूषण ।
7
आरती थाल
शुचि- दीपक बाल
करे अर्चना
मुग्ध मन- मराल
माता करे निहाल ।
8
जगज्जननी
सृष्टि की संचालक
शक्तिदायिनी
तू जीवन आधार
करे भव से भार।
9
मुक्त कण्ठ से
मन करे उच्चार
माता स्तवन
भेंटे जो श्रद्धा हार
खुले मुक्ति के द्वार ।
10
शुभागमन
श्री- पग प्रक्षालन
वरदहस्त
धरो माँ मेरे शीश
दो दिव्य शुभाशीष।
11
पावन पर्व
करें गान गंधर्व
मुग्ध अथर्व
आद्या मंत्रोच्चारण
आधि- व्याधि मारण ।
12
पर्व विशेष
करो गृह- प्रवेश
सिंहवाहिनी
दो आशीष अशेष
माँ हरो दु:ख-क्लेश।

-0-

Saturday, October 9, 2021

1143

 प्रीति अग्रवाल

1-मन दुखता है

एक शूल-सा चुभता है, मन दुखता है

जब लड़कियों के
सारे गुण एक पलड़े में, और
रूप -रंग, दूसरे में तुलता है
एक शूल- सा चुभता है, मन दुखता है।

जब दहेज की रकम
जुटाने में, दिन रात
पिता का जूता घिसता है,
एक शूल-सा चुभता है, मन दुखता है।

जब जलसों के बाहर
कूड़े के ढेर पर, जूठे पत्तल
चाटता, कोई दिखता है
एक शूल- सा चुभता है, मन दुखता है।.

कारखानों की सुलगती
भट्टी, धुँए में, जब
नन्हा बचपन, कुम्हलाता है,
एक शूल- सा चुभता है, मन दुखता है।.

महत्वाकांक्षाओं का सुनहरा जाल,
नई पीढ़ी को लुभाता है, उन्हें
जुर्म की गिरफ्त में पहुँचाता है,
एक शूल- सा चुभता है, मन दुखता है।.

शहीद दिवस पर, जवान
मैडल पाता है, और केवल वही एक सौगात,
परिवार के लिए छोड़ जाता है,
एक शूल- सा चुभता है, मन दुखता है।.

जब देश का अन्नदाता, किसान,
हमें भरपेट खिला, खुद
आँतों में घुटने दे, भूखा सो जाता है,
एक शूल- सा चुभता है , मन दुखता है।.

जब बूढ़े माँ -बाप का जोड़ा,
सब कुछ बाँटकर, खुद,
बच्चों के बीच, बँट जाता है,
एक शूल- सा चुभता है, मन दुखता है।.

जब रिश्तों के नाम पर,
खुदगर्जी और आधिपत्य का
स्वांग रचाया जाता है,
एक शूल- सा चुभता है, मनदुखता है।.

अनदेखा करने के
लाख जतन करूँ, पर हर ओर,
यही मंज़र नज़र आता है,

एक, शूल सा, चुभता है, .....और मन,
वो...... बहुत दुखता है!!
-0-.......

2- मन वासन्ती है

अब दुखते मन को, भला
ऐसे, कैसे छोड़ दूँ
जी चाहता है
इसके अंजाम को, एक
नया, हसीन मोड़ दूँ

जब बेटियों के पिता,
दहेज की जगह शिक्षा के लिए पैसे जुटाते हैं,
उनके हौसलों को पंख लगाते हैं,
एक फूल- सा खिलता है, मन तो वासन्ती है।

जब नन्हा बचपन
चिड़ियों संग चहचहाता, घंटों
तितलियों के पीछे दौड़ लगाता है,
एक फूल- सा खिलता है, मन तो वासन्ती है।

जब सरकारी योजनाएँ, 'जय जवान,जय किसान'
के नारे को, सार्थक कर जाती है,
उन्हें यथोचित सम्मान दिलाती है,
एक फूल- सा खिलता है, मन तो वासन्ती है।

निःशुल्क रसोईं, और लंगरों में,
माँ अन्नपूर्णा मुस्काती है, सब को
पोषित कर, तृष्णा मिटाती है,
एक फूल सा खिलता है, मन तो वासन्ती है।

जब औलाद जायदाद नहीं, माँ बाप के संग- साथ,
और सेवा की, हो लगाती है,
उन्हें पलकों पर बिठाती है,
एक फूल- सा खिलता है, मन तो वासन्ती है।

जब रिश्ते, प्रेम, सद्भावना, और
समर्पण की चाशनी में पग जाते हैं,
सुख के, नित, नए अनुभव, पाते हैं
एक फूल सा खिलता है, मन तो वासन्ती है।

शुरुआत मुझसे ही होगी,
बदलाव मुझे ही लाना है,
होंगे सपने साकार, यह सोच,
मुदित मन गाता है,

एक, फूल -सा खिलता है,वह मन
वह मन रोम-रोम में भीनी -भीनी खुशबू भर देता है, 
मन तो वासन्ती है!!

Tuesday, October 5, 2021

1140

 

अरविन्द यादव

1

वे नहीं करते हैं बहस

 


वे नहीं करते हैं बहस जलमग्न धरती

और धरती पुत्र की डूबती उन उम्मीदों पर

जिनके डूबने से डूब उठती है धीरे-धीरे

उनके अन्तर की बची-खुची जिजीविषा

वे नहीं करते हैं बहस

जब न जाने कितने धरती -पुत्र

अपने खून-पसीने से अभिसिंचित फसल

बेचते हैं कौड़ियों के भाव

जिसको उगाने में डूब गए थे

गृहलक्ष्मी के गले और कानों में बची

उसके सौन्दर्य की आखिरी निशानी

वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने अन्नदाता

कर्ज के चक्रव्यूह में फँस मौत को लगा लेते हैं गले

जिनके लिए सड़कें पंक्तिबद्ध होकर नहीं थामती हैं मोमबत्तियाँ

और चौराहे खड़े होकर नहीं रखते हैं दो मिनट का मौन

वे नहीं करते हैं बहस संसद से सड़क तक

तख्तियाँ थामे चीखते- चिल्लाते उन हाथों पर

देश -सेवा के लिए तत्पर उन कन्धों पर

जिन्हें जिम्मेदारियों के बोझ से नहीं

कुचल दिया जाता है सरे राह लाठियों के बोझ से

वे नहीं करते हैं बहस बर्फ के मुँह पर कालिख मलती रात में

ठिठुरते, हाथ फैलाए उन फुटपाथों की दुर्दशा पर

जिन्हें नहीं होती है मयस्सर

दो वक्त की रोटी और ओढ़ने को एक कम्बल

वे नहीं करते हैं बहस अस्पताल के बिस्तर पर

घुट-घुटकर दम तोड़ती भविष्य की उन साँसों पर

जिन्हें ईश्वर नहीं

निगल जाती है व्यवस्था की बदहाली

वक्त से ही पहले

वे नहीं करते हैं बहस कभी बदहाल और बदरंग दुनिया पर

र्त्तनाद करते जनसामान्य की अन्तहीन वेदना पर

वे करते हैं बहस कि कैसे बचाई जा सके

सिर्फ और सिर्फ मुट्ठी भर रंगीन दुनिया।

2

युद्ध स्थल

 

युद्ध स्थल, धरती का वह प्रांगण

जहाँ धरती की प्रवृत्ति सृजनात्मकता के उलट

खेला जाता है महाविनाश का महाखेल

सहेजने को क्षणभंगुर जीवन का वह वैभव

जिसका एकांश भी नहीं ले जा सका है साथ

आज तक सृष्टि का बड़े से बड़ा योद्धा

युद्ध स्थल, इतिहास का वह काला अध्याय

समय जिनके सीने पर लिखता है

क्रूरता का वह आख्यान

जिसे सुन, जिसे पढ़

कराह उठती है मनुष्यता

सदियाँ गुज़र जाने के बाद भी

युद्ध स्थल दो पक्षों के लहू से तृप्त वह भूमि

जहाँ दो शासक ही नहीं

लड़ती हैं दो खूँखार प्रवृत्तियाँ

लडती हैं दो खूँखार विचारधाराएँ

जो बहातीं हैं एक-दूसरे का लहू

बचाने को अपना-अपना प्रभुत्व

युद्ध स्थल, प्रतिशोध और बर्बरता की वह निशानी

जहाँ दौड़ती हुई नंगी तलवारें निर्ममता से

धरती को लहूलुहान कर

छोड़ जाती हैं न जाने कितने जख्म

मनुष्यता के सीने पर

जिन्हें भरने में कलैण्डरों की कितनी ही पीढ़ियाँ

थक- हार लौट जाती हैं

सौंपकर अगली पीढ़ी को वह उत्तरदायित्व

युद्ध स्थल, गवाह, कमान होती पीठों पर

असमय टूटे, दुःख के उन पहाड़ों के

जहाँ विजयोन्माद में

निर्ममता से कुचले गए थे वे कन्धे

जिनका हाथ पकड़ करनी थी उन्हें

अनन्त तक की यात्रा

युद्ध स्थल, कब्रगाह उन संवेदनाओं की

जो युद्ध स्थल में रखते ही कदम शायद

होकर क्रूरता के भय से भयभीत

स्वयं ही कर लेती हैं आत्महत्या

युद्ध स्थल, चिह्न उन धड़कती साँसों की वफादारी के

जिन्होंने अपनी निष्ठा की प्रमाणिकता के लिए

ओढ़ ली धरती समय से ही पहले

युद्ध स्थल, स्मारक उस वीरता व शौर्य के

जिनके सामने घुटने टेकने को हो जाती है मजबूर

अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित

जीवन की अदम्य जिजीविषा

ऐसे समय में जब कि अनेकानेक अश्वत्थामा

संचित ब्रह्मास्त्रों के दुरुपयोग से

फिर बनाना चाहते हैं

विश्व को एक युद्ध स्थल

ऐसे भयावह समय में भी

एक कविता ही तो है जो शान्ति की मशाल थामे

निभा रही है अपना दायित्व

ताकि बचाया जा सके विश्व को

बनने से युद्ध स्थल।

3

फूला हुआ कांस

 

पानी में डुबकी लगाती सड़कें और गलियाँ

जिन्हें बचाने के लिए

दौड़-दौड़कर पानी उलीचतीं गाड़ियाँ

कह रहीं हैं कहानी

आसमान से टूटती, उस आफ़त की

जिसने गाँव व छोटे शहरों को ही नहीं

महानगरों व राजधानियों को भी

समेट लिया है अपने आगोश में

मदमाती नदियाँ और नाले

आतुर हैं समेटने को अपनी बाहों में

धरती की वह हरियाली

धरती का वह जीवन

जिसके बिना धरती को आप कह सकते हैं

सूर के कृष्ण का एक खिलौना

या अपनी सुविधानुसार सप्ताह का एक दिन

वह जिसके स्नेह की बौछार से

मयूर की मानिंद नाच उठता था धरती का मन

लहरा उठता था सतरंगी आंचल

अनायास जिसकी देह पर

आज उसी के ताण्डव से गिर रहे हैं औंधे मुँ

सीना ताने खड़े पेड़

उपलों की तरह बह रहे हैं धीरे।-धीरे

सिर से उतर, अरमानों के छप्पर

इतना ही नहीं बह रही है धीरे-धीरे

संघर्षों में अडिग रखने वाली, अन्तर की वह पूँजी

पानी के अनवरत प्रहार से

सूजने लगी है दरवाजों और चौखटों की देह

जिसने कर दिया है मुश्किल

उनका इधर-उधर चलना

अपने अभिमान में सीना ताने खड़ी

स्व धैर्य की डींग हाँकने वाली

घरों की दीवारें और छतें

आज स्वयं को असहाय पाकर

हो रहीं हैं शर्म से पानी-पानी

पेट की आग और जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में

कोहराम मचाते खूँटे

जान बचाकर पेड़ों की गोद में छिपने को

दौड़ते बन्दर और गिलहरियाँ

जिन्हें पत्थर होती संवेदनाएँ देख रहीं हैं

उल्टे खड़े घरों से

बेबसी का आलम यह है कि

वह चूल्हा, वह आग

जिनसे रोज सुबह-शाम

होती थी एक दूसरे की मुलाकात

ने भी नहीं देखा है एक दूसरे का मुँ

न जाने कितने दिनों से

इतना ही नहीं छप्पर के नीचे सिसकती वह चक्की

जिसे नहीं करने पड़े थे कभी फाके

आज अन्नाभाव की वजह

न जाने कितने दिनों से

दौड़ रहे हैं चूहे उसके भी पेट में

इस भयावह समय में

जब कि डूब रही हैं अनवरत, संवेदनाएँ

डूब रहीं हैं अनवरत, अनन्त आशाएँ

डूब रहे हैं अनवरत, भविष्य के सुनहरे स्वप्न

और जीवन की जिजीविषा

इन सब के बीच कितना कुछ कह गया, अनकहे

गले तक डूबा, फूला हुआ कांस

4

इस हत्यारे समय में

 

उन्हें आता देख भाग खड़ी होती हैं सड़कें

भाग खड़े होते हैं वह चौराहे

जहाँ रहते हैं मुस्तैद कानून के लम्बे हाथ

उन्हें आता देख गिरने लगते हैं औंधे मुंह

एकाएक, घबराकर

सीना ताने खड़े शटर

दौड़ पड़तीं हैं नंगे पाँ

चबूतरे पर बैठीं गलियाँ

होकर सीढ़ियों की पीठ पर सवार

छिपने को छत की गोद में

वे जब बोलते हैं

तो बन्द हो जाते हैं बोलना

लोहार के हथौड़े

बन्द हो जाते हैं चिल्लाना

सब्जियों और फलों के ठेले

इतना ही नहीं बन्द हो जाता है धड़कना

अचानक धड़कते शहर का हृदय

वे घूमते हैं छुट्टे  साँड की तरह

एक गली से दूसरी गली

करते हुए, सरेआम नुमाइश अस्त्रों की

ताकि जन्म से ही पहले कुचल सकें

उन संभावनाओं को

जिनसे पैदा हो सकता है प्रतिरोध

खोलकर किसी घर का दरवाजा

उनके आने से

धीरे-धीरे लाल होने लगती है धरती

धीरे-धीरे आग में नहाने लगते हैं घर

धीरे-धीरे घबराकर कूदने लगते हैं खिड़कियों से

बसों और कारों के शीशे

और धीरे-धीरे थमने लगतीं हैं दौड़ती हुई साँसें

तड़प-तड़प कर

वे दे जाते हैं न जाने कितने जख्म

वे फैला जाते हैं न जाने कितनी नफरत

जिसे भरने के लिए सूरज

न जाने कितनी बार

फैलाता है अपने हाथ

धरती न जाने कितनी बार

काटती है चक्कर

बादल न जाने कितनी बार

बरसते हैं झमझमाकर

और न जाने कितनी बार,

थक हार, खूँटियों से लटक

आत्म हत्या कर लेते हैं कलैण्डर

ठीक उसी समय जब सारा शहर मना रहा था मातम

कराह रहीं थीं शहर की गलियाँ और सड़कें

वे मना रहे थे जश्न

आलीशान होटल के कमरे में

मेज पर खड़ी बोतल को घेर

टकराते हुए जाम

वे उड़ा रहे थे बेखौफ

कस के साथ धुएँ के छल्ले

अँगुलियों के बीच मुट्ठी में फँसी खाकी और खादी को

करते हुए अस्तित्वहीन

अब जब कि इस हत्यारे समय में

कितना मुश्किल है बच पाना

उन हत्यारी नजरों से

जिनके सामने नतमस्तक हैं सिंहासन

ऐसे भयावह समय में भी

कविता कर रही है जद्दोजहद

बचाने को यह सुन्दर संसार

इन हत्यारी नजरों से।

-0-

असिस्टेंट प्रोफेसर-हिन्दी,

जे.एस. विश्वविद्यालय शिकोहाबाद (फिरोजाबाद) , त्तर प्रदेश