छलिया सपने
सविता अग्रवाल 'सवि'
जब सारा जग सो जाता
है
मैं सपनों से ही लड़ती
हूँ
बंद नयन के द्वारों
पर
क्यों दस्तक देकर आते
हो ?
साकार नहीं होना होता
तो क्यों नयनों में
सजते हो?
तुम कौन देश से आते
हो?
और कौन दिशा को जाते
हो?
छलिया बन मुझको छलते
हो
परदेसी बन चल देते हो
मेरी नींदों को मित्र
बना
मुझसे ही शत्रुता करते
हो
बालक को लालच देते हो
फिर छीन सभी कुछ लेते
हो
मन में मेरे एक दीप
जला
क्यों आँधी बन आ जाते
हो
उषा की किरणों में मिल
कर
क्यों धूमिल से हो जाते
हो
शबनम की बूँदों की भांति
क्यों मिट्टी में सो
जाते हो
मन मेरे में एक आस जगा
नव ऊर्जा सी भर देते
हो
पल भर में क्यूँ शैतान से तुम
मुझे चेतनाहीन बनाते
हो
जब सारा जग सो जाता
है
मैं सपनों से ही लड़ती
हूँ
छलिया सपनों संग रोज़
रात
मैं यूँ ही झगड़ा करती
हूँ |
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