पथ के साथी

Tuesday, October 24, 2023

1381

 

छलिया सपने

 सविता अग्रवाल 'सवि'

 

जब सारा जग सो जाता है

मैं सपनों से ही लड़ती हूँ

बंद नयन के द्वारों पर

क्यों दस्तक देकर आते हो ?

साकार नहीं होना होता

तो क्यों नयनों में सजते हो?

तुम कौन देश से आते हो?

और कौन दिशा को जाते हो?

छलिया बन मुझको छलते हो

परदेसी बन चल देते हो

मेरी नींदों को मित्र बना

मुझसे ही शत्रुता करते हो

बालक को लालच देते हो

फिर छीन सभी कुछ लेते हो

मन में मेरे एक दीप जला

क्यों आँधी बन आ जाते हो

उषा की किरणों में मिल कर

क्यों धूमिल से हो जाते हो  

शबनम की बूँदों की भांति

क्यों मिट्टी में सो जाते हो

मन मेरे में एक आस जगा

नव ऊर्जा सी भर देते हो

 

 पल भर में क्यूँ शैतान से तुम

 

मुझे चेतनाहीन बनाते हो

जब सारा जग सो जाता है

मैं सपनों से ही लड़ती हूँ

छलिया सपनों संग रोज़ रात

मैं यूँ ही झगड़ा करती हूँ |

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1380

 


हरसिंगार

सुरभि डागर

 


हरी-हरी डालियों पर 

भरे  हरसिंगार के  फूलों से

वायु भी सुरभित हो

हृदय को स्पर्श कर

मन को सिंचित कर देती,

मानों रात ही महक उठी हो ।

सुवह की भोर में शा से झरकर

बिखर जाते हैं धरा की गोद‌ में,


जा प
हुँचते हैं

किसी की पूजा की  थाली में

हो जाते हैं महादेव पर समर्पित

और पूर्ण हो जाती है

गंगाजल में विसर्जित होकर

हरसिगार की जीवन-यात्रा।

बस ये ही जीवन है ! !

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