पथ के साथी

Thursday, February 16, 2017

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1-सब तो न किताबें कहतीं हैं.....
भावना सक्सैना

इतिहास गवाह तो होता है घटनाओं का
लेकिन सारा कब कलम लिखा करती हैं?
जो उत्कीर्ण पाषाणों में, सब तो न किताबें कहतीं हैं,
सत्ताएँ सारी ही स्वविवेक से, पक्षपात करती हैं।

किसके लहू से  रँगी शिला, किसका कैसे मोल हुआ
अव्यक्त मूक कितनी बातें, धरती में सोया करती हैं।
निज स्वार्थ लिए कोई, जब देश का सौदा करता है
उठा घात अपनों की, धरती भी रोया करती है।

मीरजाफर- सा कायर जब घोड़े बदला करता है
दो सौ सालों तक धरती, बोझा ढोया करती है।
ऐसा बोझा इतिहास रचे, सच्चे नायक खो जाते।
मिथ्या कृतियाँ सूरमाओं की सत्ता कारा करती हैं।

आज़ादी का श्रेय अहिंसा लेती जब
साहसी वीरों के बलिदान हवि होते हैं
नमन योग्य जिनके चरणों की धूलि
स्मृतियां भी उनकी खो जाया करती है।

कुटिल कलम इतिहास कलम करती जब
खून के आँसू पत्थर भी रोया करते है
लिखने वाले लिख तो देते हैं निराधार
युगों युगों पीढ़ियाँ, भ्रमित हुआ करती हैं।
 -0-
 2-फगुआ पैठ गया मन में
रश्मि शर्मा  ,राँची 

2-फगुआ पैठ गया मन में
रश्मि शर्मा ,राँची
फगुनौटी बौछारों में
पछुवा बनी सहेली जैसी
तन सिहरन पहेली जैसी
और, फगुवा पैठ गया ,
मन वीणा के तारों में ।।

परबत ने संकेत दिए
टेसू से, उड़ते बादल को
पागल परबत को भिगा गए
जैसे नेह भिगो दे ,आँचल को
पेड़- पेड़ पर टाँक गया
फूलों के गुलदस्ते कोई
मौसम की बहारों में ।।

और फगुवा पैठ गया ,
मन वीणा के तारों में ।।

धूप चदरिया बिछा गई है
गॉव की अमराई में
अबीर बरसती रही रातभर
ओस बन बनराई में।
अमलतास से पीले दिन में
नशा घुल गया आँखों में
मद - रस, अधर छुहारों में ।।

और ,फगुवा पैठ गया ,
मन वीणा के तारों में ।।

मन की आस का छोर नहीं
बढ़ती जाती है निस दिन
परदेसी का ठौर नहीं
प्यास हिया बुझे किस दिन
अकथ पहेली से परिणय का
गीत रचुँ मैं कब तक ,
चक्षु नदी के किनारों में ।।

और फगुवा पैठ गया ,
मन वीणा के तारों में ।।

फगुनौटी बौछारों में
पछुवा बनी सहेली जैसी
तन सिहरन पहेली जैसी
और, फगुवा पैठ गया ,
मन वीणा के तारों में ।।
.०.