पथ के साथी

Tuesday, June 25, 2019

892-अक्षर नहीं मरा करते हैं


[1193 में बख़्तियार खिलज़ी ने भारतीय  ज्ञान के प्रति  ईर्ष्यावश नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में आग लगवा दी। विश्व की उस समय की इस सर्वोच्च संस्था में  सँजोए सभी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ जलकर ख़ाक़ हो गए। यह आग कई महीनों तक जलती रही। विद्वान् शिक्षकों  की हत्या कर दी गई। इस घटना से मन में कुछ भाव आए, जो आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।]
 रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

चाहे ख़िलजी लाखों आएँ
नालन्दा हर बार जलाएँ
धू -धू करके जलें रात- दिन
अक्षर नहीं जला करते हैं।

विलीन हुए  राजा और रानी
सिंहासन  के उखड़े पाए
मुकुट हज़ारों मिले धूल में
बचा न कोई अश्क बहाए।

ग्रन्थ फाड़कर आग लगाकर
बोलो तुम क्या क्या पाओगे
आग लगाकर  तुम खुशियों में
खुद भी इक  दिन जल जाओगे।

नफरत बोकर फूल खिलाना
बिन नौका  सागर तर जाना
कभी नहीं होता यह जग में
औरों के घर बार जलाना।

जिसने जीवन दान दिया हो
उसे मौत की नींद सुलाना
जिन ग्रन्थों में जीवन धारा
बहुत पाप है उन्हें मिटाना।

ख़िलजी तो हर युग में आते
इस धरती पर ख़ून बहाते
मन में बसा हुआ नालन्दा
लाख मिटाओ मिटा न पाते।

आखर -आखर जल जाने से
ये शब्द नहीं  मिट पाते हैं
भाव सरस बनकर वे मन में
अंकुर बनकर उग जाते हैं
जीवन जिनका है परहित में
कब  मरण से डरा करते हैं।
मरना है इस जग में सबको
अक्षर नहीं मरा करते हैं।

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