रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
घुस
गए चोर कवि जी के घर में
सोते-सोते
सुना रहे थे कविता
वे
ऊँचे स्वर में ;
संयोजक
उन्हें बार-बार कुर्ता खींचकर
टोक
रहे थे ,
हर
कविता के बाद घण्टी बजाकर भी
उन्हें
रोक रहे थे।
कवि
जी झल्लाए,
और
गला फाड़ आवाज़ में चिल्लाए-
‘यह
मेरा घर है, मैं बार -बार बता रहा हुँ
आखिरी
बार तुम्हें अब समझा रहा हूँ-
यहाँ
पर तुम्हारी दाल हरगिज़ न गलेगी
और
कहीं चलती होगी तुम्हारी चाल
यहाँ
पर बिल्कुल न चलेगी।’
सिर पर रखकर पैर, चोर वहाँ से भागे
भगदड़ सुनकर कवि जी गहरी नींद से जागे।
कविता के फ़ायदे कवि जी को जँच गए
कविता के कारण ही वे लुटने से बच गए।
-0-8-9-1985