पथ के साथी

Sunday, March 31, 2024

1407

 

1-आदर्श स्त्री/ मंजूषा मन

 


हर ख़्वाहिश के साथ

थोड़ा मर जाती है स्त्री।

स्त्री के भीतर का थोड़ा हिस्सा

हर बार मर जाता है,

ख़्वाहिश के मरने से।

 

ऐसे ही थोड़ा- थोड़ा मरकर

एक दिन

स्त्री पूरी मर जाती है।

फिर स्त्री में

कहीं नहीं बचती स्त्री।

 

रह जाती है बस

एक मिट्टी की गुड़िया

संवेदनाओं से रिक्त।

नहीं करती

किसी बात का विरोध,

नहीं रूठती कभी,

न कभी करती है जिद,

कुछ माँगती भी नहीं,

जो कहो सब करती है।

 

आदर्श स्त्री

समझी जाती है

मरी हुई स्त्री।

-0-

2-दोहे- रश्मि लहर

1

पद की गरिमा के बने, झूठे दावेदार

प्रिय है मिथ्या चाटुता, मिथ्या ही सत्कार

2

गलियाँ सब सूनी पड़ीं, चौराहे भी शान्त

बच्चे गए विदेश में, ममता विकल नितांत

3

थाली के बैंगन सदृश, कभी दूर या पास

आखिर उनकी बात पर, कैसे हो विश्वास

4

उनकी बातें चुभ रहीं, चुभता हर संदेश

पद- मद में जो चूर हैं, बढ़ाते वही क्लेश

 5

करते वे अपमान हैं, खुद बनकर भगवान

याद न क्यों रहता उन्हें? समय बड़ा बलवान

6

संस्कृति निर्वसना मिली, उच्छृंखल परिवेश

बच्चों को भाता नहीं, अब पुरखों का भेस

7

औरों की आलोचना, करते हैं भरपूर

आत्म-मुग्ध होते रहें, रख दर्पण को दूर

8

अवसादी फागुन मिला, चिंतित मिला अबीर

खूनी होली देखकर, व्याकुल हुए कबीर

9

जर्जर होते पट मुँदे, घर सूना दिन- रैन

है खंडहर होता भवन, ढहने को बेचैन

-0-इक्षुपुरी कॉलोनी लखनऊ-2 उत्तर प्रदेश

Sunday, March 24, 2024

1406-वे हुरियारे दिन

 

1-वे हुरियारे दिन.../ डॉ.शिवजी श्रीवास्तव


 

मन पाँखी फिर ढूँढ रहा है

वे हुरियारे दिन।

 

अम्मा की गुझियाँ

भाभी की

सरस ठिठोली, होली

शोर मचाती गली गली में

हुड़दंगों की टोली

कोई नर्म हथेली

हमको रंग लगा यूँ बोली

भूल न जाना रंग भरे ये

प्यारे-प्यारे दिन।

 

रूठा- रूठी

झगड़े लफड़े

होली में जलते थे

फगुआ,चैता रसिया सुन-सुन

सबके मन खिलते थे

जुम्मन मियाँ गुलाल लगाते

गले सभी मिलते थे

सपनों जैसे लगते हैं अब

वे उजियारे दिन।

 

गाँव गली के छोरे-छोरी

खूब धमाल मचाते

ढोल नगाड़ों की ढम-ढम पर

ठुमके सभी लगाते

इतने रंग उड़ाते नभ में

इंद्रधनुष बन जाते

अल्हड़ मस्त अदाओं वाले

वे फगुआरे दिन।

-0-

2-रश्मि विभा त्रिपाठी

ऋतुपति मुझको इतना वर दे

अबकी फागुन ऐसा कर दे

कुछ टेसू

और

मुझे

अपना कुछ रंग अम्बर दे

धरती अपनी हरीतिमा से

चुनकर हरा रंग

ले जाए, 

उनके द्वार पर धर दे

चटख लाल, हरा, पीला, गुलाबी-

ये एक- एक रंग

मेरे प्रिय के जीवन में

इन्द्रधनुष के सब रंग भर दे।

-0-

Wednesday, March 20, 2024

1405

 

सिलसिला

डॉ. सुरंगमा यादव

 

मुझे अकेला पाकर

अकसर

तुम आ जाते हो

मेरे पास

फिर शुरू होता है

तुम्हारी बातों से निकलती

बातों का सिलसिला

भाने लगता है मुझे

ये अकेलापन

पहले भी नहीं

और अब भी नहीं

ऊबती ही नहीं

डूबती ही जाती हूँ

तुम्हारी बातों की गहराई में

ढूँढ लाती हूँ कई मनके

दुनिया से छुपके

सहसा चौक जाती हूँ !

किसी के पुकारने पर

गड्ड-मड्ड हो जाता है

मन की झील में उभरा हुआ

तुम्हारा अक्स

फिर शुरू होता है

तुम्हें सोचने का सिलसिला।

-0-

Wednesday, March 6, 2024

1404-कविताएँ

 

रश्मि विभा त्रिपाठी

1-आत्मा के तल में



मेरे मन के मरुथल में
तुम
बादल का एक टुकड़ा
जब- जब दुख की आग में तपना पड़ा
एक पल में
कर दी रिमझिम बरसात
तुम्हारी हर एक बात
अमृत का घड़ा
मैं जी उठी
उत्साह हो गया
उठकर खड़ा
तुम
मेरी आत्मा के तल में
असल में
मेरे जीवन में तुम्हारा स्थान है
ईश्वर से बड़ा।

2- अर्थ

बेकार से खोखल बाँसों को
जब कृष्ण ने
अपने अधरों से छुआ
वो
उस पल से
बाँसुरी
हो गए,
सो गए
मेरे भाग को
मेरे मीत
तुमने ऐसे ही जगाया है
जिस पल
मुझे गले लगाया है
फैलाकर अपनी बाहों को
छूकर मेरी साँसों को
जो बीत रहा था
व्यर्थ,
मेरे उस जीवन को
तुमने दे दिया एक सुन्दर अर्थ।

3- आओ

बहुत ढूँढा
मगर
किसी किताब में
कहीं नहीं मिल पाया
वो लफ़्ज
कि जिसमें मैं पिरो देती
तुम्हारे अहसास के वो फूल
जिनसे हुई है
मेरी ज़िन्दगी सरसब्ज़
तुम जानना चाहो मुझसे कुछ
अपने बारे में
अगर
तो किसी पल आओ
मेरे सिरहाने बैठो
और टटोलो मेरी नब्ज़।

4- इबादत

मेरी आँखों के झरोखे में
तुम झाँककर देखो
ये जो बहुत ऊँची
मेरे ख्वाबों की गगनचुम्बी इमारत है
इसे भला कौन तोड़ सकेगा?
इसकी बुनियाद
तुम हो
कोई कहर
किसी पहर
टूट नहीं सकता
मेरे हाथों से
खुशी का दामन अब छूट नहीं सकता
मुझपर तुम्हारी इनायत है
तुम्हारे दम से
मेरी खंडहर पड़ी ज़िन्दगी में
आज फिर से
रौनक है,
दिल के दरीचे में
मैं
तुम्हारे सजदे में हूँ
तुम्हारा प्यार मेरी इबादत है।

5- रूह

तड़के उठते ही
आज मुझे
पापा की याद आ गई
मेरी आँखों में
अचानक नमी छा गई
काश! आज वो यहाँ होते...
ये सोचकर
मैंने
आसमान की ओर देखा
और सच मानो
तबसे
अब तक लगातार
बारिश हो रही है
बिजली भी कड़क रही है बार- बार
जैसे
बादल कह रहा हो
कि
दुनिया में इन्सान ही नहीं,
अपनों से बिछुड़कर
जन्नत में
रूह भी
हुड़ककर रोती है ज़ार- ज़ार।

-0-