रामेश्वर काम्बोज
‘हिमांशु’
1
बीज जितने भी बिखेरे वे
सभी मधुबन में खिले।
यार जितने भी बनाए, दुश्मनों के घर में मिले
2
वश नहीं तेरा कि मेरा,हम क्यों मिले इस मोड़ पर
जानता इसको विधाता,क्या कुछ चले हम छोड़कर
3
कुछ अपनों ने तो
मुझको इतना प्यार दिया
सौ- सौ जनम मिलें तो कर्ज़
उतारूँ कैसे ।
कुछ ने अपने बनकर
इतने थे वार किए
सौ-सौ मरण मरूँ मैं
उन्हें बिसारूँ कैसे
4
सब काँटे कुछ ने मेरे
पथ के चुन डाले
सब पोर -पोर हाथों के
लहूलुहान किए ।
कुछ ने अपने बनकर
हज़ारों प्रहार किए
नासूर हमें देकर पूरे
अरमान किए ।
5
लोगों की क्या बातें, लोग दगा देते हैं।
अपने बनकर घर में ,आग लगा देते हैं।
मुक्तक
शान से आगे बढ़ो तुमकल तुम्हारा है
तुम तो मेरी जाह्नवी हो, मुझमें जल तुम्हारा है।
पथ तुम्हारा कंटकों का,संग में ही चलना मुझे
सुमन खिलाने हैं वहाँ तक जहाँ आँचल तुम्हारा
है।
-0-