पथ के साथी
Thursday, May 28, 2015
Wednesday, May 27, 2015
पंजाब की पीड़ा
ज्योत्स्ना प्रदीप
हरियाली की मोहक छवि
समृद्धि के थे आह्वान
रे !
हरे -भरे थे खेत
जहाँ
सूने-से हैं मकान रे !
बैलो की मधुर घंटियाँ
गीत धरा के गाती थीं
स्नेह भरी माँ बेटों को
रोटी- साग खिलाती थी
राजा मिडास जैसा तू
बना है क्यों धनवान रे ! 1
रोटी की पोटली लियें
धूप में आती नार थी ।
नयनो के काजल में भी
ठंडी छैया अपार थी ।
भरे थे जो अनाजों से ,
सिसकते है खलिहान रे । 2
गेहूँ की बालियाँ कभी
उसकी
बालियों से लड़ी
वो तकती तेरा रास्ता
चिनाब के किनारे खड़ी
माटी में कहीं दबे हुए
मैं ढूढ़ूँ वो निशान
रे ! 3
उसपर
जुल्म ये ढाया है
तू बसा कहीं
बिदेस रे
वो कैसा सोना रूप था
ये क्या बनाया भेस रे?
आजा तेरी बेबे के
उड़ने चले है प्राण रे ! 4
-0-
Wednesday, May 20, 2015
आजकल
1-कविता
सूख
गई संजीवनी जड़
मंजु गुप्ता (वाशी , नवी मुंबई )
भोर
किरण जो
सेवाओं
से सवेरा लाई
समाज
- देश उसका ऋणी
संग
- साथ , जग में
खुशियों
की कोहिनूर बनी
वे
किरण थी अरुणा शानबाग।
लेकिन
एक दिन
दुःख
के मेघ मँडराए
जंजीरों
में बाँधके उसे
जहरीले
नाग ने
लूटी
उसकी लाज
बेरहमी
का ये गूँगा समाज।
नीर
में ढला तूफ़ान
कोमा
तम में छाया प्रात
रिसते
रहे साँसो के घाव
झेले
चार दशक दो साल
तन
- मन का अशक्त
घर
वालों ने छोड़ाा साथ।
मानवता
के मसीहे
हुए
उसके अपने
करने
लगे उसका
जीवन रौशन
सँवारते
कई हाथ
करे
पूरा देश गुमान
लेकिन
कह न पाई
अपनी
व्यथा-कथा
पतझड़ी
जीवन तरु से
धीरे
-धीरे झड़ी सारी पत्तियाँ
सूख
गई संजीवन से संजीवनी जड़
लेकर
अन्तिम साँस ।
-
2-आयोजन
आभा
सिंह के लघुकथा संग्रह " माटी कहे" का विमोचन समारोह
दिनांक.
14मई2015,4
बजे स्पंदन महिला साहित्यिक एवं शैक्षणिक संस्थान जयपुर द्वारा
लेखिका आभा सिंह के लघुकथा संग्रह ‘माटी कहे’ का विमोचन पिंकसिटी प्रेस क्लब में मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला बिहारी, विशिष्ट अतिथि
प्रो.नन्दकिशोर पाण्डेय, अध्यक्ष डॉ.
हेतु भारद्वाज, स्पंदन अध्यक्ष नीलिमा टिक्कू, लेखिका आभा सिंह एवं डॉ नवलकिशोर दुबे द्वारा किया
गया।
कार्यक्रम
के मुख्य वक्ता डॉ.नवल किशोर दुबे ने आभासिंह की लघुकथाओं में अध्यात्म का स्पर्श बताते हुए यथार्थ की बुनियाद एवं संवेदना की गहन दृष्टि को रेखांकित करती ऐसी कथाएँ बताईं, जिनमें गहन जीवन दर्शन का संयोग इन कथाओं को
विस्तृत भाव भूमि प्रदान करता है।उन्होंने पुस्तक की नीर-
क्षीर समीक्षा प्रस्तुत की ।
मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार
मृदुला बिहारी जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि ‘माटी कहे’ की छोटी छोटी कथाएँ हमारे आस-
पास का ही जीवन सत्य है।ये रचनाएँ बतातीं हैं कि जो यथार्थ है वह क्या है।ये
लघुकथाएं वे दृष्टि हैं जो परतों केभीतर झांक लेती हैं ।ये पाठकों की सोच पर दस्तक
देतीं हैं ।यह महज लक्षण या अर्थ व्यक्त नहीं करतीं,यह
संभावनाएँ भी व्यक्त करतीं हैं।
विशिष्ट अतिथि प्रो. नन्द
किशोर पाण्डेय ने लघु कथा संग्रह को समय
की माँग व पूर्ति बताते हुए।उल्लेखनीय बताया। स्पंदन सदस्य
सुश्री नेहा विजय,डॉ. रत्ना शर्मा ने आभा सिंह की लघु कथाओं
का पाठ किया। लेखिका आभा सिंह ने अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताया।उन्होंने
कहा कि मन के आवेगों के तहत सोचने की गूढ़ प्रक्रिया से गुजर कर भाव आकृति में ढल जाते हैं।सोच की नवीनता,कथन की सपाट शैली, संवाद का चातुर्य, व्यंग्य का पुट और प्रस्तुतीकरण का चुटीला रूप यही है लघुकथा का गढ़न।इन्ही
मानको को ध्यान में रखकर प्रस्तुत संग्रह की लघुकथाओं को गढ़ने का प्रयास किया
है।पूरा संग्रह जैसे मेरी लघुकथा यात्रा है।
कार्यक्रम
की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हेतु भारद्वाज ने कहा कि लेखिका
आभासिंह. ने अपने लघुकथा संग्रह की कथाओं में वन की विसंगतियों का चित्रण किया
है।बडी़ कहानियों के मुकाबले में लघुकथाओं को पिरोना मुशकिल होता है; लेकिन आभा जी
का लेखन -कौशल है और वो इसमें पूर्णतः सफल रहीं हैं। कार्यक्रम केअंत में धन्यवाद
प्रस्ताव. उपाध्यक्ष माधुरी शास्त्री जी ने दिया।कार्यक्रम का सफल संचालन सचिव डॉ. संगीता
सक्सेना ने किया।
-0-सम्पर्क-आभा सिंह-09928294119
;08829059234
Monday, May 18, 2015
ग़ायब हुई मिठास।
डॉ•रामनिवास ‘मानव’,
डी•लिट्•
1
चाहे घर
में दो जने, चाहे
हों दस–पाँच।
रिश्तों
में दिखती नहीं, पहले
जैसी आँच।।
2
रिश्ते
सब ‘इन लॉ’ हुए,
क्या साला, क्या सास।
पड़ी गाँठ–पर–गाँठ
है, ग़ायब
हुई मिठास।।
3
हर
रिश्ते की नींव की, दरकी
आज ज़मीन।
पति–पत्नी भी अब लगें,
जैसे भारत–चीन।।
4
न ही
युद्ध की घोषणा, और न
युद्ध–विराम।
शीत–युद्ध के दौर–से, रिश्ते हुए तमाम।।
5
रिश्तों
में है रिक्तता, साँसों
में सन्त्रास।
घर में
भी अब भोगते, लोग यहाँ वनवास।।
6
‘स्वारथ’ जी जब
से हुए, रिश्तों के मध्यस्थ।
रिश्ते
तब से हो गए, घावों
के अभ्यस्त।।
7
अब ऐसे
कुछ हो गए, शहरों
में परिवार।
बाबूजी
चाकर हुए, अम्मा
चौकीदार।।
8
माँ
मूरत थी नेह की, बापू आशीर्वाद।
बातें ये
इतिहास की, नहीं
किसी को याद।।
9
समकालिक
सन्दर्भ में, मुख्य
हुआ बाज़ार।
स्वार्थपरता
बनी तभी, रिश्तों
का आधार।।
10
क्यों
रिश्ते पत्थर हुए, गया कहाँ सब ताप।
पूछ रही
संवेदना, आज आप
से आप।।
11
खंडित–आहत अस्मिता,
उखडा़–उखड़ा
रंग।
नई सदी
का आदमी, कैसे–कैसे ढंग।।
12
तुमने
हमको क्या दिया, अरी
सदी बेपीर।
छुरी, मुखौटे, कैंचियाँ, और विषैले तीर।।
13
नव–विकास के नाम पर,
मिले निम्न उपहार।
बेचैनी, बेचारगी, उलझन और उधार।।
14
मन गिरवी, तन बँधुआ, साँसें हुई गुलाम।
घुटन भरे इस
दौर में, जीयें
कैसे राम।।
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