पथ के साथी

Sunday, December 31, 2017

785

1-डॉ0 कविता भट्ट  

रात का रोना तो बहुत हो चुका ,
नई भोर की नई रीत लिखें अब।

नहीं ला सकता  है समय बुढ़ापा ,
युगल पृष्ठों पर  हम गीत लिखें अब ।

नहीं हों आँसू  हों नहीं  सिसकियाँ,
प्रेम-शृंगार और प्रीत लिखें अब।

दु:ख- संघर्षों  से हार न माने ,
वही भावाक्षर मन मीत लिखें अब।

समय जिसे  कभी  बुझा  नहीं  पाए
हम वह जिजीविषा पुनीत लिखें अब

कभी हार न जाना ठोकर खाकर,
पग-पग पर वही उद्गीत लिखें अब।

काल -गति से  कभी बाधित न होंगे
आज कुछ इसके विपरीत लिखें अब।

यही समय हमारा नाम लिखेगा ,
सोपानों पर नई जीत लिखें अब।
-0-[हे0न0ब0गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर (गढ़वाल),उत्तराखण्ड]

2-सुनीता काम्बोज

नए साल में, नई धुनों पर
नए तराने गाएँगे
आगे बढ़ते जाएँगे

लक्ष्य निर्धारित कर अपना
दृढ़ निश्चय से बढ़ते जाना
आशाओं की  पकड़ी डोरी
घोर निराशा से टकराना
जिसे ज़माना याद करेगा
काम वही कर जाएँगे
नए---

मुरझाए रिश्तों में साँसें
भरने का दम रखते हैं
ठान लिया जो मन में उसको
करने का दम रखते हैं
नई चुनौती नई योजना
 ऊर्जा से भर जाएँगे
नए--

कुछ नूतन किसलय फूटेंगे
सूने मन की डाली पर
जो हैं सूखे ताल ,सरोवर
देंगे अब कर्मों से भर
तम को अपना दास बनाकर ,
नया सवेरा लाएँगे
नए--

-0-

Thursday, December 28, 2017

784

रामेश्वर  काम्बोज 'हिमांशु'
1
पलकों पर तुम रात दिन,उर में हर पल वास।
रोम-रोम में प्यार का,होता है आभास।।
2
झरने-सी तेरी हँसी,तिरती हरदम पास।
जीवन के पल चार में,तुम ही मेरी प्यास।।
-0-
चौपाई

आँसू 
ज्योत्स्ना प्रदीप


आँसू की जननी है  पीड़ा
करती है पर  कैसी  क्रीड़ा ।।
जनम दिया पर तज देती है 
आँखों के पथ  रज देती हैं ।।

आँसू का बस दोष बता दो 
रहे जहाँ ये वही  पता  दो ।।
आँखों से ये बह  जाते हैं
मौन व्यथा पर कह जाते हैं ।।

आँसू  जल का जीवन न्यारा
नयनों  चमके  मानों तारा ।।
ये भी जीवन के बलिदानी 
दूजों की पीड़ा  के  मानी  ।।
-0-

2-दिव्य - बिंदु 

नभ ,गिरि ,कानन तुम वसुधा हो
जनम - जनम की तीव्र क्षुधा हो ।।
रजत- चाँद हो तपस स्वर्ण से 
नील कमल के सरल पर्ण से ।।
  
तुम हो बादल  शांत  -सिंधु से 
पार न कुछ हो दिव्य - बिंदु से ।।
नयन अमिय को तुम  छलकाते
करुणा पाकर   कर  जुड़ जाते ।।
  
शिशु की कोमल किलकारी हो
सुरभित कुसुमों की क्यारी हो||
जानें अब किस देश बसे हो
किस नाते में  हमें  कसे  हो ।।
  
जग में जितना रहता छल है
इन आँखों से गिरता  जल है ।।
मन ना लगता है इस जग में
मन में रख लो या फिर दृग  में ||

-0-

Friday, December 8, 2017

783

तुम्हारी प्रतीक्षा में 
डॉ.कविता भट्ट

ठंडी रातों को पेड़ों के पत्तों से टपकती व्यथा है
बसन्त की आगन्तुक रंगीन परन्तु मौन कथा है                                                                                           तुम्हारी प्रतीक्षा में......
चौंककर जागती हूँ जब कभी रात में
पास अपने न पाती हूं तुम्हें रात में
विरहिणी बनी मैं न अब सोऊँगी
इसी पीड़ा के कड़ुवे सच में खोऊँगी
                   तुम्हारी प्रतीक्षा में......
बसंत है परन्तु उदास है बुरांसों की लाली
रंगों की होली होगी फीकी खाली थी दिवाली
खुशियाँ खोखली और हथेलियाँ हैं खाली
राहें देख लौटती आँखें उनींदी ,बनी हैं रुदाली
                   तुम्हारी प्रतीक्षा में......
प्रेमी पर्वत के सीने पर सिर रखकर सोती नदी ये
धीमे से अँगड़ाई लेकर पलटती सरकती नदी ये
कहती मुझे चिढ़ा कहाँ गया प्रेमी दिखाकर सपने झूठे 
चाय की मीठी चुस्कियाँ बिस्तर की चन्द सिलवटें हैं
                   तुम्हारी प्रतीक्षा में......   
अब तो चले आओ ताकि साँसों में गर्मी रहे
मेरे होंठों पर मदभरी लालियों की नर्मी रहे
चाहो तो दे दो चन्द उष्ण पलों का आलिंगन
बर्फीली पहाड़ी हवाओं से सिहरता तन-मन
                   तुम्हारी प्रतीक्षा में......    
अपने प्रेमी पहाड़ के सीने पर
सिर रखकर करवटें बदलती नदी,
बूढ़े-कर्कश पाषाण-हृदय पहाड़ संग,
बुदबुदाती, हिचकती, मचलती नदी।
तुम्हारी प्रतीक्षा में......
-0-

Tuesday, December 5, 2017

782

स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
डॉ कविता भट्ट

रात्रि-प्रहर की इस स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
सतरंगी विश्राम- भवन से कभी नहीं जाना

आज तक कभी मैंने मन का  द्वार नहीं उढ़काया
अहं-सांकल  न चढ़ाई न ताला कभी लगाया

खुले झरोखे बिछे प्रेम दरीचे सजे  दर्पण
देखो सीढ़ी चढ़कर, खाली राजा का आसन

नवकुसुमित अधर लिये हूँ शोभा तुम्ही बढ़ाना
पदचाप रहित  मंद-मंद पग-पग बढ़ते जाना

युग बीते प्रेम घट रीते,  इन्हें भरते जाना
कभी  रनिवास जीते, षोडश शृंगार सजाना

सप्त सुरों की ध्वनियों में गलबहियाँ पहनाना
रोम-रोम झंकृत हो ऐसा तुम  साज बजाना

         रात्रि-प्रहर की  इस स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना
 सतरंगी विश्राम- भवन से कभी नहीं जाना

Sunday, December 3, 2017

781

 परिवर्तन की बेला है?
शरद सुनेरी
  
सच लटक रहा है खूँटी पर!
मूल्य फोड़ते  अब माथा!
रो-रो हर पल दोहराता है
बीते कल की गौरव गाथा!
जब गला घोंटकर रिश्तों ने
अपनों के दिल से खेला है।
ये परिवर्तन की बेला है?

कुछ सिक्कों की झनकारों में
अस्मत-इज़्ज़्त जब बिकते हैं
कलदारों की चमकारों में
ना दर्द जगत के दिखते हैं
इस युग की दानवताओं को
बेबस मानव ने झेला है
ये परिवर्तन की बेला है?

अधनंगे अंगों मे सिमटी
सभ्यता यहाँ सिंगार बनी
मदिरा, अधरों को छू-छूकर
दुनिया में शिष्टाचार बनी
आधुनिकता की चकाचौंध,
अय्याशों का मेला है।

ये परिवर्तन की बेला है?