पथ के साथी

Thursday, October 28, 2021

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स्मृति का मायावी वृक्ष

- रश्मि विभा त्रिपाठी 

 

मैं बागवानी में नहीं दक्ष


और न ही किसी

वनस्पति विज्ञानी के

समकक्ष

खड़ा मेरे समक्ष

स्मृति का

एक मायावी वृक्ष

समीप ही मन-कक्ष

वातायन से देखूँ

तो इठला रहा

बोध को झुठला रहा

रात्रि-दिवस का अनुसंधान

अतीत का कुछ सामान

वे सारे तिनके,

याद आया मुझे

एक दिन

लापरवाही से

फेंक दिए थे

जो आँखों में थे तिरे

छिटक कर दूर जा गिरे

मन की मिट्टी में

सोचा कि दफ़्न हो गए

मगर वही तिनके

बीज बन

भीतर अँखुआए

और फिर लहलहाए

एक पेड़ के प्रतिरूप में

जिसकी जड़ें

मेरे अंतस्तल में

फैली हुई हैं

मैं अब समझी-

क्यों लगता है कभी

जैसे कोई मुझे बाँध रहा

स्मृति के आँगन का

मायावी वृक्ष

मुझ पर

माया का शर

साध रहा

बिंध गई हूँ

जैसे कि भीष्म

शरद्, हेमंत, ग्रीष्म

ऋतु विपरीत बदले रंग

कहीं शिशिर में

बिखरते  हो पीत पर्ण,

अनेक वर्ण

बन बसंत का दूत

बरसाए न्यारी सुगंध

खिल उठे हरसिंगार- सा

कहीं पहले प्यार -सा

तो कभी सावनी फुहार -सा

मुझे जाने क्यों खींचता

मन अकारण ही

इसे सींचता

मैं सोचती हूँ

कभी तो माया से

मुझे मुक्त कर

स्मृति का कल्पवृक्ष

मेरे बीते दुख-संताप से

देगा पूर्ण निदान

जैसे बुद्ध को

बोधिवृक्ष के तले

प्राप्त हुआ था निर्वाण।