पथ के साथी

Wednesday, August 24, 2022

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2-पर्वतों की तंद्रा- सॉनेट अनिमा दास

 

तरल तंद्रा बह गई थी,पर्वतों से.. सिक्त हुआ था वन

रुधिर झर गया था वक्ष से.. रिक्त हुआ था यह मन।

नदी हुई थी चंचला.. समुद्र से संगम की थी व्यग्रता

किंतु नैश्य द्वीप में सहस्र उष्ण कामनाओं की थी आर्द्रता।

 

स्वरित हो रही थी कदम्ब कुंज में कृष्ण वर्णा कादंबरी


ऊषा के पूर्व हो रहा था ध्वनित क्रंदन, थी सुप्त विभावरी ।

मंथर था समीरण...मुक्त हो चुका था धरणी का केश

किंतु अब भी मौन देह में था ग्लानि का अपूर्ण क्लेश।

 

मृदु भाव में तीक्ष्ण पीड़ा का चुम्बन.. अतीत से कहा,

"स्मृति एक नहीं..अनेक हैं। कैसे कहूँ क्या -क्या है सहा!"

निरुत्तर अतीत हुआ अदृश्य.. वर्तमान के अंतर्जाल में

अंतरिक्षीय ध्वनि में हुआ विलीन शेष हुआ काल में।

 

 

तरल तंद्रा बह गई थी पर्वतों से... रक्तिम ऊषा थी आई

मालविका की काया शिशिर बूँद लिए मंद- मंद लहराई।

-0-अनिमा दास हिंदी सॉनेटियर,कटक, ओड़िशा