रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मन दर्पन
दरक गया जब,
बिखर गया
सारा सुख-जीवन ।
पाती अनाम
आती है आजकल
लूटे किसने ?
वे प्यारे सम्बोधन ।
आदि बेनामी
नहीं कुछ भीतर ,
लिये उदासी
हो रहा समापन ।
कोई न जाने
वह चुप्पी का दंश,
खूब रुलाए
साँसों पर बन्धन ।
सपने खोए
ज्यों गर्म तवे पर
थे आँसू बोए
किया सब तर्पण ।
कहाँ कन्हैया ?
गुम कहाँ बाँसुरी
भटके राधा
शापित वृन्दावन ।
मज़बूरी जो
हम वह भी जाने
व्याकुलता से
भरे, नयन करें
दु:ख का आचमन ।
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