1-भिक्षुक
अनीता सैनी 'दीप्ति'
निरा भिक्षुक ही था!!
उसने हवा चखी, दिन-रात भोगे
रश्मियों को गटका
चाँद से चतुराई की
यहाँ तक
पानी से खिलवाड़ करता
पेड़-पौधों को लीलता
गया
मैंने कहा-
सुबह से शाम तक कितना
जुटा लेते हो भाई!
वह एकटक घूरता रहा
परंतु वे आँखें भी
उसकी न थीं
कुछ समय पश्चात् बड़बड़ाया
वे शब्द भी उसके अपने
कमाए न थे
गर्दन
के पीछे
अपने
दोनों हाथ कसकर जकड़ता है
दीवार का सहारा लेता
है
सोए विचारों को जगाने
का प्रयास करता है
परंतु वे विचार भी उसके
अपने न थे
उसकी अपनी कमाई पूँजी
कुछ न थी
आँखें, न आवाज़ और न ही विचार
उधारी पर टिका जीवन
बद से बदतर हो गया
पश्चात्ताप की अग्नि में
जलता हुआ आज कहता है-
मैं अपनी आवाज़
अपने विचार और आँखें
चाहता हूँ
बहुत पीड़ादायक होता
है भाई!
डेमोक्रेसी में आवाज़
का खोना।
2-दोहे
रश्मि विभा त्रिपाठी
1
नैनों से निकली नदी, नम पलकों की कोर।
तुम जब से परदेश में, भीगा मेरा छोर।।
2
रावण और कंस हुए, बेमतलब बदनाम।
इनसे बढ़के आदमी, आज कर रहा काम।।
3
तन के संग चले सदा, छाया जैसे साथ।
डोरी मेरे प्राण की, अब है तेरे हाथ।।
4
तुम बोलो सुनती रहूँ , ये मीठी आवाज।
तुमसे ही तो है सधा, साँसों का यह साज।।
5
अगर मीत ऐसा मिले, दो प्रभु को आभार।
हाल तुम्हारा जान ले, जो बिन चिट्ठी, तार।।
6
तेरी वाणी रसभरी, भावों भरा यथार्थ।
तुझको पाकर हो गया, जीवन आज कृतार्थ।।
7
जिसके मन में प्रेम का, अगर नहीं है लेश।
मानें ना मानें भले, जीवन उनका क्लेश।।
8
दूजे के सुख के लिए, श्रम करते अश्रांत।
तुम ही सच्चे प्रेम का, एकमात्र दृष्टांत।।
9
इसीलिए भाया मुझे, केवल तेरा राज।
मैंने देखा, प्रेम की,
लोग डुबोते लाज।।
10
मुझको राहों पर मिले, पल- पल केवल हर्ष।
इसीलिए तुमने किया, पग- पग पर संघर्ष।।
11
रोज परीक्षाएँ कठिन, होती आशा जीर्ण।
पाठ पढ़ाते तुम मुझे, कर देते उत्तीर्ण।।
12
मुझको तो ऐसा हुआ, सचमुच तेरा प्यार।
मानो किसी गरीब ने, पाया हो भंडार।।
13
दूर किया तुमने सदा, मेरे मन का रोष।
पग- पग पर आशीष का, देकरके परितोष।।
14
सोना य चाँदी नहीं, ना ही मोती- हार।
मेरे जीवन का साँच, मीत तुम्हारा
प्यार।।
15
क्या बुरा सदा मैं धरूँ, बस तेरा ही ध्यान।
तेरे भीतर पा लिया, मैंने तो भगवान।।
16
जग की शाला में तुम्हीं, सच्चे गुरु हो
एक।
मुझे निशुल्क सिखा रहे, हर विज्ञान, विवेक।।
17
अटक गए वे देखके, धन या पद का लोभ।
प्यार मिला तेरा मुझे, उनको फिर क्यों क्षोभ।।
18
मन ज्यों निर्मल जाह्नवी, आशीषों की धार।
मेरे सुख का स्रोत है, केवल तेरा प्यार।।
19
महल अटारी बिक गए, बचा नहीं खपरैल।
लालच की जिस वक्त से, तृष्णा बनी रखैल।।
20
नींव खोखली हो गई, उजड़ा घर औ द्वार।
रिश्तों में दीमक लगी, चाट गई सब प्यार।।
-0-
3-मेरा उत्कल (सॉनेट)
आद्य आदित्य आदिरूप
का है मेरा उत्कल अभाज्य
सुंदर स्वरूप सुरभित
स्रोत का, है
मेरा उत्कल स्वराज्य
है मेरा उत्कल मधुर
भाषित मृदुल मलय का मलयज
है मेरा उत्कल सत्य
सनातनी सप्तरंग उत्सव का नीरज।
हे, प्रणम्य
उत्कल! मधुसूदन के प्राण प्रणीत प्राणन का
हे, मेरा
सुराम्य उत्कल! गजपति के गरिमामय गुंजन का
उदधि उपान्त उदित ऊषा
का है मेरा उत्कल उतुंग उल्लोल
नीलकंठ के नील नीरधि
का है यह राज्य करंबित कल्लोल।
गरियस गौरवमय गंगाधर
का, हे,
मेरे उत्कल गजमणि!
तिल तर्पण में तीर्ण
तपस्विनी का, है
यह प्रदेश तेज तरणि
स्वर्ग सुरभियुक्त
सौम्य सुधा का, हे,
मेरा उत्कल सुभग
उन्मुक्त आकाश में
मुक्त प्रकाश का है यह परिमुक्त विहग।
शुभ्र शंख में शोभित
शौर्य का हो मेरा श्वेतपूर्ण उत्कल
अमर्त्य पर्यंत
व्याप्त एकता का हो मेरा संपूर्ण उत्कल।
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