पथ के साथी

Thursday, February 4, 2021

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1-डॉ. सुरंगमा यादव 

आज  क्यों भीगी अँखियन कोर!

 

            आज  क्यों भीगी अँखियन कोर!
रह-रह कर मन हुआ विकल
डोल रहा हृदय अविचल
सुप्त व्यथाएँ जाग उठीं
करतीं  क्रन्दन घोर!
          आज क्यों भीगी अँखियन कोर!
बाहर कलरव अंतर में रव
फीका लगता सारा वैभव
मन में पारावार उमड़ता
देख चाँद की ओर !
           आज क्यों भीगी अँखियन कोर!
आज सुरभि पहचानी लगती
मंद बयार सुहानी बहती
अलि  बता दे क्या प्रियतम ने
धरे चरण इस ओर!
               आज क्यों भीगी अँखियन कोर!

 

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2-शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

नवगीत

1-करघे का कबीर 

 

हथकरघे की साड़ी का 

पीलापन हँसता है ।

 

बैठा रहता है करघे सँग

श्रम का सहज कबीर,

रोजी-रोटी की तलाश का

निर्मल महज फकीर,

गाँवों के उद्योगों का 

अपनापन हँसता है ।

 

घरों-घरों तक कुटी-शिल्प की  

पहुँच रही है धूप,

ताने-बाने के तागों की

खुशियों का प्रारूप,

खादी के उपहारों का

उद्घाटन हँसता है ।

 

सूत कातने की रूई के 

काव्यों का नव छंद,

भूख-प्यास का नया अंतरा,  

नव प्रत्यय, नव चंद,

गांधीजी के सपनों का

परिचालन हँसता है ।

 

सहकारी होने के अतुलित 

भावों का यह गीत,

संवेदन के जलतरंग का 

यह गुंजित संगीत,

भाई-चारे का अभिनव 

अभिवादन हँसता है ।

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2-दिल्ली के उन राजपथों से 

 

शहरों में हैं

पर शहरों की चकाचौंध से

अभी अछूते हैं ।

 

जिसका है घरबार न उसका 

आसमान घर है,

मौसम की इस शीत लहर का 

असमंजस, डर है,

मजदूरी के

कई अभावों की छानी के 

दर्द अकूते हैं ।

 

दिल्ली के उन राजपथों से 

मिलती पगडण्डी,

खपरैलों से छाई छत की

फटेहाल बंडी,

देखा भी है,

कई प्रेमचंदों के पग में

फटहे जूते हैं ।

 

गरमाहट के लिए न आते 

किरणों के हीटर,

बिन बिजली उपभोग दौड़ते,

बिजली के मीटर,

घासफूस की

झोंपड़ियों के छेद बूँद का 

आँचल छूते हैं ।

 

धुँधलेपन की इस बस्ती की 

देह पियासी है.

रामराज्य के व्याकरणों की  

भूख उदासी है,

नई नीतियाँ

सब विकास की, कहाँ रुकी हैं?

किसके बूते हैं?

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3-शहर जो रुकता नहीं है  

 

इस शहर में आजकल

कुछ तो कहो?

क्या कार्य उत्तम हो रहा है ?

 

शहर जो रुकता नहीं है,  

आज कुछ कुछ रुक गया,

कमल जो झुकता नहीं है,  

आज कुछ कुछ झुक गया,

बोझ दंगे का विवादित

आनुवांशिक 

कपट 'ट्रैक्टर' ढो रहा है ।

 

राजनीतिक चौसरों पर

सज चुकी हैं गोटियाँ,

विगत सत्ता सेंकती है

कुटिलता की रोटियाँ,

बीज, अपनी माँग का हर 

कृषक पहुँचा,  

सड़क पर ही बो रहा है ।

 

समय भी सहमा हुआ है,

सिंधु भी ठहरा हुआ,

ज़िद खड़ी है टेंट में, है   

हल-कुआँ गहरा हुआ,

शांति की संभावना की 

दिव्यता का  

धैर्य, अवसर खो रहा है ।

 

अँगुलियाँ उठती रही हैं

राज्य के संकल्प पर

विधि विधायित योजना के 

न्यायसंगत तल्प पर,

नीतियों में खामियों के 

रोध का हठ-

धर्म रोटी पो रहा है ।

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