पथ के साथी

Friday, April 26, 2024

1413-अंजू निगम की कविताएँ

 

अंजू निगम  की कविताएँ

 1-बरखा


 

बरखा की बूँदों ने जब भी

फैलाया था अपना आँचल

और जब बिखर रहे थे रंग 

मेहँदी के,  मेरे मन के आँगन में

तब लगा जैसे याद किया तुमने

 

रह-रहकर जब थाप पड़ी

मुँडेरों पर या साँस लेती

खिड़की की झिर्रियों पर

या यूँ ही खुले दरवाजों की

दहलीजों पर

तब लगा जैसे याद किया तुमने

 

चमकी जब हिचकी आसमाँ में

 या घुमड़ उठे यादों के बादल

जब भीगी धरती आँखों की

या घुल-घुल जाते वादों की

गीली मिट्टी में धँस चले वक्त की

तब लगा- जैसे याद किया तुमने

 

इस बारिश में जब सज रही

चारों ओर बूँदों की महफिल

और धरा में बिखरा हरापन

जब बहीं कागज की कश्तियाँ

या नहा चुकीं हरे पत्तों की लड़ियाँ

तब लगा- जैसे याद किया तुमने।

 

बारिश जब अपने को लाएँगी हर साल

तब हमेशा लगेगा जैसे याद किया तुमने।

-0-

2- उस दिन जब हम मिले,

 

उस दिन जब हम मिले,
तुमने वही जज्बात की चादर ओढ़ रखी थी,
जिसमें थोड़ा तुम भीगी थोड़ा मैं

उस दिन जब हम मिले,
तुमने रिश्तों के कितने ही धागों से लपेट रखा था अपने को,
फिर कुछ तुमने कुछ मैंने उन बीते लम्हों की सीवन उधेड़ी

 

उस दिन जब हम मिले,
मैं तुम्हें उन गलियों में ले ग थी,
जहाँ यादें बिखरी थी बेतरतीब,
कुछ मैं समेट ला थी कुछ तुम

पर उस दिन मिलने में था,
कुछ छूटा- सा, कुछ अधूरापन लिये,
शायद ये ख्याल साथ था ,
कि वक्त की बंदिश है,
और कल फिर तुम्हारा साथ छूटेगा,
एक बार फिर मिल लेने के लि

तसल्ली- सी भी थी कि रिश्ता तो रहेगा ही,
साथ का न सही यादों का ही सही

-0-

3- मैंने कभी तो नहीं चाहा कि

 

मैंने कभी तो नहीं चाहा कि

उन जागती रातों में अपने ख्वाब तुम्हें पहनाऊँ,

मैंने तो कभी नहीं चाहा कि

जो अनकहा- सा रह गया है वह तुम्हें सुनाऊँ
कभी तो पतझ के गिरते पत्तों में, तुम्हें नहीं गिना मैंने

दिन के उजालों- सी चाँदनी, तुमसे कहाँ माँगी मैंने
मैंने कभी नहीं चाहा कि
अजनबी से तुम मुझे पहचानने लगो
मैंने कभी तुम्हारी आँखों में,
अपने लिये इंतजार नहीं माँगा

मैंने बस यही चाहा कि तुम उम्र-उम्र जीओ,
और मैं बस दुआ-दुआ करूँ
मैंने बस यही चाहा कि तुम मुझे,
मेरे 'मैं' में रखो 'सब'  में नहीं

मैं बस यही चाँहू कि
न बनूँ मैं मीरा' न राधा

,बस मैं रुक्मिणी- रुक्मिणी- सी बनूँ।

-0-

4-राहें हैं जुदा

 

बहुत अजनबी,तन्हा सा लग रहा है यह शहर

यह किस्सा तब का है, जब तुम हिस्सा न रहे

न मेरे, न इस शहर के।

 

हाँ रूठी थी मैं बातों से तुम्हारी

तुम्हारी बातें जो बींधती थीं 

गरम सलाखों- सी जो पिघला जाती थी 

मेरे कानों के कोमल पर्दे पर 

मेरी कमजोर याददाश्त

भूल जाती थी वह सब

जब तुम्हारी परवाह के नर्म फाहें सहला जाते थे मेरा मन

 

इधर तुम बहुत बदल ग थे

तुम्हारे शब्दों के तीर तो बींधते रहे

और तुम्हारी परवाह सुप्त रही

नदी के रुके पानी की तरह हमारा रिश्ता सड़ने लगा 

लगा कि कुछ छटपटाहट है तुम्हारी

 इस रिश्तें से अलग हो जाने की

यह रिश्ता जो गल गया 

अब तलक एक आस, जो रोशनी भर रही थी

नीरवता में लिपट, बुझ ग थी।

बस उसी दिन से,एक उसी दिन से 

वह मर चुका हिस्सा कोई लौ जला न पाया

हमारे बीच चौड़ी हो रही दरारों पर

बना न पाया कोई पुल।

 

उस दिन से यह शहर अजनबी हो गया है बहुत

यह घर , इसकी दीवारें पहचानती ही नहीं मुझे

जिनको सजाने में मैंने दे दि

अपनी जिदंगी के आधे हिस्से

इतना परायापन मैंने कभी नहीं चाहा था अपने लि

और फिर तुम भी तो, न रहकर भी

बहुत बसे हो हर कहीं

तुम्हें हर जगह से खुरचकर कैसे निकालूँ

बस यही  तुम बताकर नहीं ग

 

तुम्हारे बिना जीना बहुत रुखापन लिये है

पर मन अब घुटता कम है, बराबर लगती चोट

बहुत बहुत मजबूत बना गई है

बस अब इंतजार है, कुछ ओस की बूँदों का

जो गिरे मेरे सूखे जीवन में

और भरे नमी, मेरे दग्ध ह्दय में।

-0-

 

5-दरवाजा

 

उस रोज़ दरवाजे पर जो दस्तक थी,

उन हाथों की थाप अजनबी लगी।

दरवाजा खोला, तो बाहर शोहरत खड़ी थी।

उसके चारों ओर अजीब उजाला भरा था,

मेरी आँखें चुँधियाने लगी थी।

 

मन मेरा हाथ छुड़ा चल दिया,

मन मेरा कोमल था,अजनबी था दुनिया से।

मुझे मालूम था मन भटक जागा, बह जागा,

फिर हुआ भी वही, मेरा मन बह निकला।

बहते हुए मिल गया कामयाबी के समुद्र में,

और खो गया वहीं।

 

मैं और मेरा मन फिर कभी नहीं मिले

अब दरवाज़े पर होती हर दस्तक,

खौफ़ज़दा करती हैं,

जाने इस बार कामयाबी मेरा क्या छीन ले।

     -0-