पथ के साथी

Thursday, January 31, 2019

672-मैं अकेला ही चला हूँ


मैं अकेला ही चला हूँ
      रमेश गौतम

मैं अकेला ही चला हूँ
साथ लेकर बस
हठीलापन

चित्र-रमेश गौतम
एक ज़िद है बादलों को
बाँध कर लाऊँ यहाँ तक
खोल दूँ जल के मुहाने
प्यास फैली है जहाँ तक
धूप में झुलसा हुआ
फिर खिलखिलाए
नदी का यौवन              

सामने जाकर विषमताएँ
समन्दर से कहूँगा
मरुथलों में हरीतिमा के
छन्द लिखकर ही रहूँगा
दर्प मेघों का
विखण्डित कर रचूँ मैं
बरसता सावन

अग्निगर्भा प्रश्न प्रेषित
कर चुका दरबार में सब
स्वाति जैसे सीपियों को
व्योम से उत्तर मिलें अब
एक ही निश्चय
छुएँ अब दिन सुआपंखी
सभी का मन
-0-

Monday, January 28, 2019

871


समय
प्रो0 इन्दु पाण्डेय खंडूड़ी

समय एक,
अविरल, अनंत
आज, कल और
अनगिनत अनवरत।
कैसे किया ये,
भेद- विभेद,
पुरातन और नूतन
है ये मेल अभेद।
ये उमंग, ये तरंग
ये दौड़- भाग,
ये राग -रंग
ये मीलों का सफ़र,
ये संदेशो की रफ़्तार।
मानव ने ये भ्रम पाले,
नए साल के साये में
र्त्तव्य -अकर्त्तव्य के,
भाव जब तब डाले।
जो था एक, अविरल
और अनंत, उसको ही,
बाँट खंड -विखंड
भूत- भविष्य बना डाला।
कर्म के प्रस्तर खंड से,
इतिहास अखण्ड और,
अखण्ड धरा के खण्ड से
रच लिये अपने भूगोल।
-0-

Sunday, January 27, 2019

870


क्षणिकाएँ
प्रियंका गुप्ता
1
तुमने
शब्द कहे थे;
मैंने
अर्थ जी लिया ।
2
सूरज
कतरा -कतरा पिघलके
बह गया,
धरती बूँद बूँद
पीती गई;
ऐसे ही तो
सृष्टि बनी ।
3
मुझे
गीत बना गा लेना,
या
नज़्म की तरह
लिख लेना;
मैं हवा की तरह
तुम्हारे आसपास रहूँगा,
बिखर जाऊँगा
खुश्बू की तरह;
इश्क़ करने से ज़्यादा
बेहतर होगा
इश्क़ में घुल जाना ।
4
उसने धरती पर
फसल लिखी,
पौधों में
ज़िन्दगी पढ़ी,
और एक दिन
आसमान ताकते हुए
उसने मौत चुनी;
इस तरह
कहानी मुक़म्मल हुई ।
5
ज़िन्दगी मुझे
विष देती रहे
तुम छू के मुझे
अमृत कर देना;
खेल ऐसे ही तो जीतते हैं न ?
-0-

Friday, January 25, 2019

869


श्री किशन  सरोज ( जन्म 19 जनवरी 1939) राष्ट्रीय स्तर के गीतकार हैं। इनका गीत संग्रह 'चन्दन वन डूब गया'  सन् 1986 में प्रकाशित हुआ। यह वह समय था , जब छपने की आपाधापी नहीं थी। इनके निकटतम साथी भी चुप्पी मार गए। मुझे इनके चरण स्पर्श करने वाले शिष्य से पुस्तक पढ़ने को मिली। पढकर मुझे पुस्तक लौटानी पड़ी।मैंने संग्रह की  प्रथम समीक्षा लिखी , जिसे अमर उजाला दैनिक में सहर्ष प्रकाशित किया गया। संग्रह की अधिकतम प्रतियाँ एक शहर के बरामदे में पड़ी-पड़ी भीगकर काल कवलित हो गई । उसी संग्रह का एक गीत आपके लिए।
-0-
तुम निश्चिन्त रहना
 किशन सरोज

कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना ।

धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूँद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना ।

दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना ।

लो विसर्जन आज वासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित
मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना ।
-0-

Monday, January 21, 2019

868


रामेश्वर काम्बोजहिमांशु

ज़हर मत जाति का बाँटो
ये हवा विषैली होगी ।
नफ़रत के  दमघोंट धुएँ से
धरती मैली होगी।
          आग लगाने वाले हाथों
          निर्माण नहीं होता ।
          मुस्कान छीनने  से जग में
          कल्याण नहीं होता ।
इतिहासों के उजले पन्ने
कर बैठौगे काले ।
लड़वाकरके मौज करेंगे
आग लगाने वाले ।
          मज़हब के चंगुल से निकले,
          उन्हें जाति बाँट रही ।
          प्यार मिटाकर नफ़रत की ही
          अब फ़सलें काट रही ।
चेहरों पर डर लिख देने से
कुछ नहीं पाओगे ।
अपने हाथ काटकर कैसे
क़िस्मत लिख पाओगे .
          रहो प्रेम से सब मिल-जुलके,
          यह डोर नहीं तोड़ो
          अनजाने जो धागे टूटे
          उनको फिर जोड़ो ।
-0-(7 मार्च, 2016)



Friday, January 18, 2019

867


भारत भूमि(माधव मालती छन्द)
 पूनम सैनी 
भोर में फूटी किरन, है कर रही जग में उजाला।
खिल रहा है मन कमल,ये देख अम्बर पथ निराला।

भीगता नभ छोर है, यह भीगती धरती  विमल भी
धार अमृत बह रही,यह भीगता है मन कमल भी

खेत में उपजी फसल,बागों में तितलियाँ झूमती।
देख लो आकाश को,ये इमारतें  सभी चूमती।

पंछियों के नीड़ से,अब उठ रही परवाज देखो।
जिंदगी के सफर का ,अब हो रहा आगाज़ देखो।

जन्म सबका एक है,जीवन न कोई  भी  छीनता।
जब एक सा अंजाम, बोलो है कहा फिर भिन्नता।

दिव्य भारत भूमि का,अब जयगान चारों  ओर है।
ज्ञान के आकाश का ,तू पावन उभरता  छोर है।
-0-

Tuesday, January 15, 2019

866

मुक्तक
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1
ख़ून हमारा पीकर ही वे
जोंकों जैसे बड़े हुए।
फूल समझ दुलराया जिनको
पत्थर ले वे खड़े हुए।।
जनम जनम के मूरख थे हम
जग मेले में ठगे गए।
और बहुत से बचे जो बाक़ी
वे ठगने को अड़े हुए ।।
2
पता नहीं विधना ने कैसे
अपनी जब  तक़दीर लिखी ।
शुभकर्मों के बदले धोखा,
दर्द भरी तहरीर लिखी ।
हम ही खुद को समझ न पाए
ख़ाक दूसरे समझेंगे।
जिसके हित हमने ज़हर पिया
उसने  सारी पीर लिखी ।।

Sunday, January 13, 2019

665-तुम नहीं आए


मंजूषा मन

नैनों ने भरना चाहा था तुम्हें
अपने भीतर
और छुपा लेना था पलकों में,

हाथों ने चाहा था छू लेना
और महक जाना
ज्यों महक जातीं हैं उंगलियाँ
चंदन को छू,

कान चाहते थे
दो बोल प्रेम के
जिन्हें सुन जन्म जन्मांतर तक
कानों में घुली रहे मिश्री,

मस्तक को चाहिए थी
तुम्हारे चरणों की एक चुटकी रज
जिसके छूते ही
मन मे भर जाए चिर शांति,

होठों ने चाहा था कह देना
मन की हर पीड़ा
कि फिर न रहे कोई दर्द,

सिर झुका रहा देर तक
इस आस में कि रख दोगे तुम हाथ
और दोगे सांत्वना
दोगे साहस जीवन जीने का,

सब मिल करते रहे प्रतीक्षा
पर तुम नहीं आए
तुम नहीं आए।
-0-

Thursday, January 10, 2019

864

 डॉ .जेन्नी शबनम
1.   
मेरे अंतर्मन में पड़ी हैं   
ढेरों अनकही कविताएँ   
तुम मिलो कभी   
तो फुर्सत में सुनाऊँ तुम्हें।   
2.   
हजारों सवाल हैं मेरे अंतर्मन में   
जिनके जवाब तुम्हारे पास हैं 
तुम आओ गर कभी   
फुर्सत में जवाब बताना।   
3.   
मेरा अंतर्मन   
मुझसे प्रश्न करता है -   
आख़िर कैसे कोई भूल जाता है   
सदियों का नाता 
पल भर में   
उसके लिए   
जो कभी अपना नहीं था   
न कभी होगा।   
4.   
हमारे फ़ासले की मियाद   
जाने किसने तय की है   
मैंने तो नहीं,   
क्या तुमने?   
5.   
क्षण-क्षण कण-कण   
तुम्हें ढूँढती रही   
जानती हूँ   
मैं अहल्या नहीं कि   
तुमसे मिलना तय हो।   
6.   
कुछ तो हुआ ऐसा    
जो दरक गया मन   
गर वापसी भी हो तुम्हारी   
टूटा ही रहेगा तब भी यह मन।   
7.   
रात का अँधेरा   
अब नहीं डराता मुझे   
उसकी सारी कारस्तानियाँ   
मुझसे हार गई   
मैंने अकेले जीने की   
आदत जो पाल ली।   
8.   
ढूँढ़कर थक चुकी   
दिन का सूरज   
रात का चाँद   
दोनों के साथ   
लुकाचोरी खेल रही थी   
वे दगा दे गए   
छल से मुझे तन्हा छोड़ गए।   
9.   
अब आओ ,तो चलेंगे   
उन यादों के पास   
जिसे हमने छुपाया था   
समय से माँगी हुई तिजोरी में   
शायद कई जन्मों पहले।   
10.   
सोचा न था   
ऐसे तजुर्बे भी होंगे   
दुनिया की भीड़ में   
सदा हम तन्हा ही रहेंगे।   
11.   
चुप -से दिन   
चुप -सी रातें   
चुप- से नाते   
चुप- सी बातें   
चुप है ज़िन्दगी   
कौन करे बातें   
कौन तोड़े सघन चुप्पी !   
12.   
तुमसे मिलकर जाना   
यह जीवन क्या है   
बेवजह गुस्सा थी   
खुद को ही सता रही थी   
तुम्हारी एक हँसी   
तुम्हारा एक स्पर्श   
तुम्हारे एक बोल   
मैं जीवन को जान गई।   
13.   
वक्त बस एक क्षण देता है   
बन जाएँ या बिगड़ जाएँ   
जी जाएँ या मर जाएँ,   
उस एक क्षण को   
मुट्ठी में समेटना है   
वर्तमान भी वही   
भविष्य भी वही,   
बस एक क्षण   
जो हमारा है   
सिर्फ हमारा !   
14.   
नजदीकियाँ   
पाप-पुण्य से परे होती हैं   
फिर भी   
कभी-कभी   
फासलों पे रहकर   
जीनी होती है ज़िन्दगी।   
15.   
चाहती हूँ   
धूप में घुसकर   
तुम आ जाओ छत पर   
बडे दिनों से   
मुलाकात न हुई   
जी भर कर बात न हुई   
यूँ भी सुबह की धूप   
देह के लिए जरूरी है   
और तुम   
मेरे मन के लिए।   
 (9. 1. 2019)  
-0-