रणभेरी-2
डॉ. सुरंगमा यादव
धोखा खाते रहने की तो आदत-सी पड़ी हमारी
तभी
जागते हैं हम जब नुकसान उठा लेते भारी
हवा
के रुख का हम कैसे अनुमान नहीं कर पाते हैं
दीपक
बुझने से पहले क्यों ओट नहीं कर पाते हैं
रहें
पीटते खूब लकीरें साँप नहीं मर पाएगा
मौका
मिलते ही वह फिर से अपना फन फैलाएगा
जो
मरने पर तुले हुए हैं,उनका क्या ही रोना है
लेकिन
निर्दोषों को कब तक अपनी जानें खोना है
आजादी
के लिए लड़े जो उनका केवल एक कर्म था
खून
बहाया सबने मिलकर,सबको प्यारा राष्ट्र धर्म था
बलिदानों
का क्रम अटूट था, तब हमने
आजादी पाई
पर आजादी
के संग बँटवारे की त्रासदी भी आई
कितने
बिछड़े, कितने बेघर, जान गँवाई कितनों
ने
भाई
भाई अब दुश्मन थे, लूट मचाई अपनों ने
ऐसा
हमें मिला पड़ोसी,जिसे नहीं सद्भाव सुहाया
जिसकी
रगों में हमेशा से ही, सिर्फ़ दुर्भाव समाया
जिन
दरबारों में आतंकी आका बनकर फिरते हैं
अपनी
बर्बादी का वे नित खुद शपथ पत्र भरते हैं
जहाँ
की सेना हत्यारों को, अपना शीश झुकाती है
उसकी
मंशा क्या होगी,ये बात समझ खुद आती है
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