पथ के साथी

Sunday, May 30, 2021

1112-तीन कविताएँ

 1-तुम पुकार लेना- सत्या शर्मा कीर्ति

 


हाँ
,  आऊँगी लौटकर

बस तुम पुकार लेना मुझको

जब बरस रही हो यादें

कुहासे संग किसी अँधेरी सर्द रात में

और वह ठण्डा एहसास जब

कँकँपा तुम्हारे वजूद को

हाँ, पुकार लेना मुझको

 

जब संघर्षों की धूप 

झुलसाने लगे तुम्हारे आत्मविश्वास को

उग आए फफोले

तुम्हारे थकते पाँवों में

जब मन की पीड़ा

हो अनकही

हाँ,  पुकार लेना मुझे

 

जब उम्र की चादर होने

लगे छोटी

जब आँखों के सपने 

कहीं हो जा गुम

जब हाथों की पकड़

होने लगी ढीली

जब सम्बन्धों की डोर 

चटकने सी लगे

हाँपुकार लेना मुझको

मैं आ जाऊँगी लौटकर

हाँ, बस एक बार 

पुकार लेना मुझको।

-0-

 2 नदी- अनिता मंडा

 


एक नदी बहती है

मन की तलहटी में

संतोष की

 

सब्र की धाराएँ  पोषती रहती हैं उसे

आँखें मूँद कर

दुनिया के कोलाहल को 

बरज देती हूँ भीतर आने से

 

अपने साथ बहती हूँ

झूमती हूँ

बढ़ती हूँ

बतियाती हूँ

भीगती हूँ

निनाद सुनते हुए खो जाती हूँ

ख़ुद से ही मिल जाती हूँ

 

दूर, बहुत दूर चली जाती हूँ सबसे

ताकि पलट कर आ सकूँ वापस

समुद्र की एक लहर की तरह

जो किनारों को छूकर लौट आती है

अपनी जगह पर

 

लहर बाँच लेती है 

समुद्र के भीतर का खालीपन

तभी तो लौट आती है

वापस अपनी जगह।

 

दुःख पसलियों पर ज़ोर-ज़ोर से दस्तक देता है

सुख वो लहर है जो आती है

आपके पाँव भीगोकर

पलट जाती है

 -0-

3- खुशियाँ रोप लें -रमेश कुमार सोनी

 


आज बाग में फिर कुछ कलियाँ झाँकी

पक्षियों का झुंड 

शाम ढले ही लौट आया है 

अपने घोंसलों में दाने चुगकर 

गाय लौट रही हैं 

गोधूलि बेला में 

रोज की तरह रँभाते हुए

क्या आपने कभी इनका विराम देखा

वक्त ना करे कभी ऐसा हो 

जैसा हमने देखा है कि- 

कुछ लोग नहीं लौटे हैं-

अस्पताल से वापस

हवा-पानी बिक रहा है 

नदियों के ठेके हुए हैं 

प्याऊ पर बैनर लगे हैं

पानी पूछ्ने के रिवाज गुम हुआ है

साँसों की कालाबाज़ारी में-

ऑक्सीजन का मोल महँगा हुआ है।

सब देख रहे हैं कि- 

श्मशान धधक रहे हैं 

आँसू की धार सूख नहीं पा रहे हैं 

घर के घर वीरान हो गए हैं

इन सबके बीच आज भी लोग 

कटते हुए पेड़ों पर चुप हैं 

प्लास्टिक के फूल बेचकर खुश हैं

खुश हैं बहुत से बचे- खुचे हुए लोग 

मोबाइल में पक्षियों की रिंगटोन्स से।

आओ आज तो सबक लें 

भविष्य के लिए न सही 

अपने लिए ही बचा लें-

थोड़ी हवा,पानी, मिट्टी, भोजन और जिंदगी 

आओ रोप लें खुशी का एक पेड़ 

एफ.डी. के जैसे!

पुण्य मिलेगा सोचकर!

मुझे विश्वास है कि-

तुम्हारी ही हथेली में 

एक दिन जरूर 

खुशी का बीज अँखुआएगा।

-0-

Tuesday, May 25, 2021

1111-्करतल

 रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'                

  https://www.amarujala.com/kavya/shabd-sangrah/aaj-ka-shabd-kartal-rameshwar-kamboj-himanshu-poem-mera-vash-chale-to-choom-lun-niyati-badal-dun


आज का शब्द: करतल और रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु' की कविता- मेरा वश चले, तो इस तरह चूम लूँ, नियति बदल दूँ

आज का शब्द- करतल और रामेश्वर कंबोज 'हिमांशु' की कविता: मेरा वश चले, तो इस तरह चूम लूँ, नियति बदल दूँ
करतल यानि हाथ की हथेली। अमर उजाला हिंदी हैं हम शब्द शृंखला  में आज का शब्द है- करतल। प्रस्तुत है रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की कविता: मेरा वश चले, तो इस तरह चूम लूँ, नियति बदल दूँ

मेरा वश चले,
तो इस तरह  चूम लूँ 
करतल तुम्हारे
कि नियति बदल दूँ
न बनूँ दुर्बलता
सदा तुम्हें बल दूँ
ठहरूँ वहाँ
साधनारत तुम जहाँ;
मेरी तापसी
जहाँ तुम नहीं
वहाँ से चुपचाप चल दूँ।
तपन,जल,संघर्ष
पी जाऊँ घूँट -घूँटकर
भाल, पलकें, हथेलियाँ
जीभर जो चूम लूँ,
सुधापान व्यर्थ है
इनके आगे,
भाल में प्रेम का उद्वेग
लालसाएँ  उद्दाम
है प्रदीप्त,
नयनों में उद्दीप्त हैं
सारे मधुरिम स्वप्न तरल
उल्लास का मन्त्रपूत जल 
और हथेलियों का पावन
आत्मसुरभि से भरा स्पर्श
एक आश्वस्ति है
जीवन की
एक मजबूत पकड़ है
परम् मिलन की
सागर में समाती तरंग
पोर -पोर से छलकती
मन प्राण को आवेशित  करती
सुदृढ परिरम्भ की उमंग।
-0-


Monday, May 24, 2021

1110-सोन चिरिया


सोन चिरिया

रतन रैना 


स्मृतियों के झरोखे से


झाँकती सोन चिरिया- सी

विचारों की एक लहर

उमड़ती- सी आई

मेरे मानस पर छा गई

और पहुँचा गई

हिमाच्छादित पर्वतों के आँगन में

खिलते पम्पोश से सुवासित 

डल झील में

तुम्बकनारी के साथ

गीत गुनगुनाते

हाजियों के पास

मलयज का गीत 

गुनगुनाते

सेव अखरोटों के 

बागान में

लुका- छिपी खेलता

मासूम बचपन

पनचक्की में

धान पीसता

सौन्दर्य जो

दिल की गहराइयों तक पैठा है

निर्वासन के बाद 

और भी बढ़ गया।

एक पीर , एक कसक 

फिर से जाग गई

जन्नते- कश्मीर के लिए।

-0-

परिचय

 श्रीमती रतन रैना

एम,ए संस्कृत, हिन्दी,एम एड

जन्म स्थान- श्रीनगर कश्मीर 

शिक्षा    ग्वालियर (म,प्र)

केन्द्रीय विद्यालय ग्वालियर  1969 प्राथमिक अध्यापक। विभिन्न केन्द्रीय विद्यालय मै कार्यरत कामठी,सागर,सूरत, बाल्को,ध्रांगध्रा ,दिल्ली ।दिल्ली मे करीब बीस साल ।यहीं से प्राचार्या से सेवानिवृत्त। 

यत्र तत्र कहानियो का प्रकाशन ।कविता  पुस्तक 

विचारो की सोन चिड़िया  प्रकाशित ।

Sunday, May 23, 2021

1109-छोटी_बड़ी कविताएँ

 1-भीकम सिंह 

 


पेड़
-1

 

जुगनूँ का 

अँधेरे पर आघात 

रात को 

जमीं नहीं ये बात 

इस पर

फड़-फड़ , लड़े ,पीपल पात 

तब हुई शांत 

अँधेरा पीती रात 

-0-

पेड़ -2

 

छाँ

पीपल की 

क्सीजन डोज ।

स्नेह का धागा 

बाँधते हो 

रोज ।

कभी तो 

पीपल के वास्ते जी लो 

लगाक पौध 

-0-

पेड़-3

 

टूट कर गिरे पत्ते 

फैली 

पेड़ों में भ्रांति 

वनविभाग 

बता रहा 

कोई क्रांति 

-0-

 1-नदी 

 

सुना है-

तुम फिर झिलमिलाने 

खिलखिलाने लगी हो, नदी ।

 

वो चाँद से 

मन का बहलाना 

नजदीकियाँ बढ़ाना 

हवाओं के स्पर्श से 

लहरें उड़ाना 

रातों में 

फिर करने लगी हो, नदी ।

 

किसी 

अधजली लाश से 

पछाड़ खाकर पास से 

दियों और सिक्कों से 

नंगों और भुक्खों से 

बातों  में

पिंड छुडाने लगी हो, नदी ।

सुना है-

-0-

 2-लड़कियाँ 

 

गुज़रे वक्त में 

बड़ी होती हैं लड़कियाँ 

 

इसलिए 

सुनसान सड़कों पर

कुछ फुसफुसाती 

ह्रदय विदारक पीर लिये

खड़ी होती हैं, लड़कियाँ

 वे सुन रही होती हैं 

शब्द !

पगध्वनि !

जो आशंका की 

घड़ी होती हैं, लड़कियाँ

 

विश्वास से भरा 

परि-आवरण 

अन्दर छुपाए 

घर-घर में खुशी की 

झड़ी होती हैं लड़कियाँ

-0-

 2-अनिता मंडा

 1-गाय

 


एक गाय थी उसके पास

वह उसे चारा देती, दूहती

गोबर पाथती

कभी-कभार जब गाय को

पसंद न आता सानी-पानी

सींग दिखा देती गाय

लात मारती।

 

उसके तो सींग भी लुप्त हो चुके

सदियों पहले

लात मारना उसका

उसे असभ्य करार देता।

-0-

 

2-पत्थर

 

दो पत्थर थे घर में

दोनों से वह सुबह शाम रूबरू होती

एक पर मिर्च मसाला पीसती

एक को अगरबत्ती दिखाती

छोटी सी गृहस्थी में

कुछ नहीं था

इनसे ज़्यादा ज़रूरी

-0-

Tuesday, May 18, 2021

1107-नहीं, अब वहाँ नहीं जाना

[कल यानी 17 मई को डॉ. हरदीप कौर सन्धु  जी का जन्म दिन था। सहज साहित्य, त्रिवेणी और हिन्दी हाइकु के सब रचनाकारों की तरफ़ से आपको हार्दिक बधाई !  विश्वभर में हाइकु, ताँका , सेदोका , चोका , हाइबन, माहिया आदि का जो प्रचार- प्रसार हुआ है, उसके लिए हिन्दी हाइकु और त्रिवेणी का योगदान सर्वाधिक है। बहन हरदीप जी ने इन दोनों ब्लॉग[ आज वेब रूप] से मुझको जोड़ा , यह मेरा सौभाग्य है। निःस्वार्थ रूप से कार्य करने वाली हरदीप जी को वे लोग भी  भूलते  जा रहे हैं, जिन्होंने इनसे सीखा। वे  अपना अलग रास्ता अपना चुके हैं। मैं इस बात को विशेष रूप से रेखांकित करना चाहता हूँ कि मैंने  जो इन विधाओं में थोड़ा-बहुत काम किया , उसमें हरदीप बहन का योगदान है। ईश्वर करे आप सदा स्वस्थ एवं प्रसन्न रहेंत, दीर्घायु हों और ये विधाएँ आपकी छत्रछाया में पल्ल्वित-पुष्पित होती रहें।  ] 

रामेश्वर काम्बोज



डॉ. हरदीप कौर सन्धु 

 

नहीं, अब वहाँ नहीं जाना


जब भी मैं ये शब्द
, वाक्य दोहराता हूँ 

उसे मैं अपने सामने ही पाता  हूँ

' तुम समझे नहीं 

तुम बोलते बहुत हो'-

अपनी निरंतर चलती बातों की लड़ी को तोड़ते हुए 

उस ने कहा था

भर आँखों में उदासी 

वह मुस्करा रहा था

तुझे देख-देख जीता था 

कैसे भूल जाऊँ !

लौट आ अब भी 

मैं तो  अब तक वहीं  खड़ा हूँ 

'नहीं, नहीं अब वहाँ नहीं जाना 

तुझे दी जहाँ पीड़ा 

तेरा तोड़ा था यकीन 

चला गया तुझसे दूर 

तुझे करके ग़मगीन’- 

उस ने फिर कहा था 

भर आँखों में उदासी 

मन्द -मन्द मुस्करा रहा था


तेरी वो मुहब्बत
 

तेरा वो यकीन 

अब भी वैसा है 

कुछ भी बदला नहीं 

तेरा ऐसे चला जाना 

मुझे देकर झकानी ( बिना बताए )

सोचता हूँ कहीं 

कोई ख़्वाब तो नहीं 

मैं तो वहीं खड़ा हूँ 

वक्त जाता चाहे बीत 

मेरा वो आज है 

तेरा वो अतीत 

नहीं, अब वहाँ नहीं जाना 

हाँ, अब वहाँ नहीं जाना 

क्योंकि 

मैं तो वहीं ही खड़ा हूँ 

आज भी वहीं ही खड़ा हूँ।

-0-