पथ के साथी

Wednesday, April 5, 2023

1310- 9प्रेम कविताएँ

 आपसे निवेदन है कि अगर न पढ़ी हो, तो धर्मवीर भारती की कनुप्रिया अवश्य पढ़ें , निम्नलिखित लिंक पर-                            

  • कनुप्रिया / धर्मवीर भारती (लम्बी रचना)                                                                  
  • कनुप्रिया पर  सन्1980  में लिखा मेरा लेख गद्य -गद्य -तरंग :सम्पादक डॉ. कविता भट्ट में पढ़ा जा सकता है।  आप यह लेख गद्यकोश में भी पढ़ सकते हैं-
  • कनुप्रिया-राधा की विह्वलता का दर्पण / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’    यह इसलिए लिखा कि तब डॉ.सुषमा गुप्ता की ये कविताएँ हृदयंगम करने में सुविधा होगी। सतही पठन से इन कविताओं को नहीं समझा जा सकता है -सम्पादक                                                                                डॉ.सुषमा गुप्ता

    1.परम सुख

     


    जंगल के उस छोर पर

    तुम्हारे साथ

    सूखे पत्तों के बीच बैठे हुए

     

    बासी अखबार पर

    रखकर

    तुम्हारे हाथों से खाई

    थोड़ी सूखी हुई रोटी ने

    आत्मा को जो परमसुख दिया

     

    देह के पाए

    सब चरम सुख

    उसी एक पल में

    आजू- बाजू बिखरे

    अचरज से पलकें झपकाते हुए

    सोचने लगे

     

    हम किस गुमान पर

    आज तलक इतरा रहे थे!

     

    मैंने एक मुस्कान

    उन्हें देते हुए कहा था

    दिल छोटा मत करो

     

     तुम्हारा होना

     थोड़ा और पास करता रहा है हमें

     इसलिए

     तुम्हारा भी शुक्रिया।

     -0-

     2.बरकत

     

    ट्रेन की खिड़की से बाहर वह देख रहा था-

     खेत खलिहान और खिली हुई सरसों

    मैं देख रही थी-

     खिड़की के काँच पर उभरता उसका अक्स

    उसने कहा- "यहाँ कितनी बरकत है"

    मैंने कहा- "बहुत"

    -0-

     3.प्रेम समाधि

     

     

    मेरी देह में इतना ताप

    कभी नहीं था

    कि तुम्हारी शीतलता को

    चुनौती दे सके

     

    इसलिए भी मैंने

    हर दफा तुम्हारे स्पर्श के सामने

    समर्पण करते हुए

    खुद को नीर कर लिया।

     

    हमारे साथ के दिनों में

    तुम मिट्टी का घड़ा रहे

    और मैं तुम्हारे भीतर

    समाया हुआ जल

     

    इस जल से

    सौंधी खुशबू तुम्हारी उठती रही।

     

    इन दिनों

    जब तुम पास नहीं हो

    तब मैं आचमन का जल बन गई हूँ

    और तुम मेरा तांबाई कलश।

     

    पवित्र भावना के बिना

    मुझ तक पहुँचना

    किसी के लिए भी

    सदा नामुमकिन रहेगा

     

    धीरे धीरे

    भाप बनकर

    मैं अपने ही कलश के भीतर

    विलीन हो जाऊँगी।

     

    मेरे लिए प्रेम

    बस इतनी सी साध भर है।

     -0-

     

    4.दृष्टि

     

     

    यूँ तो उभरने चाहिए

    उत्तेजक बिंब मेरे ज़हन में

    हमारी देह को निर्वस्त्र देखकर

     

    पर अचरच भरा

    सुख तो ये हुआ

     

    कि उस समय मैंने देखा

    पुरुष की देह से

    स्त्री को जन्म लेते हुए

     

    और देखा

    स्त्री की देह में

    पुरुष का विलीन हो जाना।

     

    कितने अभागे रहे होंगे वो!

    जिन्होंने

    देह में सिर्फ देह का होना देखा!

     -0-

     

    5.शृंगार

     

    पहली दफा जब अपना पाँव

    तुम्हारे पाँव की बगल में देखा

    तब सब अस्सी घाट की

    गारा घुली

    मिट्टी में सन्ना था।

     

    मैंने उसे देर तक देखा

    और सोचा ..

     

    इतनी सुंदर मेहंदी

    पिया के नाम की

    दुल्हन के पाँव में

    सृष्टि के सिवा

    कौन लगा सकता था भला!

    -0-

    6.औंधा प्रेम

      

    कहने को तो

    यह कहा जाना चाहिए

    कि तुम्हारे सीने से लगकर

    मेरे वक्षों ने बहुत सुख पाया

     

    पर मेरी पीठ जानती है

    कि सबसे ज़्यादा सुख

    तुम्हारे सीने से सटकर

    उसको मिला है।

     

    तुम्हारे मेरे बीच

    प्रेम के सब सुख

    औंधे क्यों हैं साथी!

    -0-

    7.मेरा ईश्वर

     

    तुम्हारी अँगुलियों को

    पहली दफा छूते हुए

    मेरी अँगुलियों को

    एक दोस्त की दरकार थी

     

    तुम्हारी हथेली ने

    जब मेरी अँगुलियों को कस लिया

     

    तब मैंने पाया

    कि मेरी अँगुलियाँ

    मेरे पिता

    मेरे सखा

    मेरे प्रेमी

    और मेरे पुत्र के

    हाथ में है

     

    मैं उसी पल जान गई थी

    कि सृष्टि में इतनी संपूर्णता

    सिर्फ़ ईश्वर के पास है।

    -0-

    8.अनुभूति

      

    मैं तुम्हें देखते हुए

    यह कहना चाहती थी

    कि तुम दुनिया के

    सबसे सुंदर पुरुष हो

     

    पर मैंने तुम्हारी आँखों में देखा

    और जाना

    कि दरअसल

    मेरी आँखों ने

    तुम्हारी बाहरी सुंदरता को

    कभी देखा ही नहीं है।

    -0-

    9.प्रेम संगीत

     

     धूप की आँखें अधखुली हैं

    मैंने आँखें पूरी मूँद रखी हैं

    देह के अलग-अलग हिस्सों पर

    धूप टप्पा खा रही है

    सर्दी की धूप यूँ खेलती है

    तो सौंधा सेंक लगता है

     

    दूर कहीं से बाँसुरी की

    मधुर आवाज़ आ रही है

    मन ने गर्दन उचकाई

    और कान, आँख, ज़ेहन से कहा -

    "यह कितना सुंदर सुख है ना!"

     

    मैंने मुस्कुराते हुए

    सिर के नीचे हाथ रखा

    महसूसा

    सिर तुम्हारे सीने पर रखा है

     

    कान आँख ज़ेहन

    सबकी ताल में सुर मिलाकर

    ज़ुबाँ ने भी इस बार

    मन की हाँ में हाँ मिलाई और कहा

     "हाँ यह सचमुच बेहद सुंदर सुख है।"

     -0-