1-रिश्तों के जाल
- सुदर्शन रत्नाकर
मैं फँसी हूँ
रिश्तों के जाल में
जिसके धागों को
मैंने स्वयं बाँधा है
अपने रक्त के रेशों से
जिन्हें काट भी नहीं सकती
बाँट भी नहीं सकती ।
निकलने की दूर दूर तक कोई थाह नहीं
जितनी कोशिश करती हूँ
उतना और उलझती हूँ ।
यह उलझन मन की है
जो स्वयं ही बँधता है
और स्वयं ही तड़पता है
रिश्तों के जाल में ।
निकलूँ भी तो कैसे
मृगमरीचका की तरह
ये आगे लिए जाते हैं ।
टूटते भी नहीं
छूटते भी नहीं
ये तो गहरे
और गहरे
होते जाते हैं ।
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2-जीवन जंग(कविता)
- सुनीता शर्मा ,गाजियाबाद
दर्द के मंजर देखे ।
आंसू के समुन्द्र
देखे ।
जीने की तमन्ना लिए
,
मौत के हमसफ़र देखे ।
मन की सिलवटों में ,
ग़मों के बसर देखे ।
खुशी की उम्मीद लिए
,
वक़्त के खंजर देखे ।
नाउम्मीद को कभी
हराते ,
खुशनसीबों के
मुकद्दर देखे ।
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