पथ के साथी

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Monday, May 15, 2017

735

माँ
1-डॉ भावना कुँअर

आज एक अजीब सी बेचैनी थी मन में
जाने क्यों बार-बार
आज भटक रहा था मन ...
रह-रहकर माँ क्यों याद आ रही थी
पिछले बरस ही तो आई थी  मेरे पास...
दिन भर जाने क्या-क्या करती
कभी खाली ही नहीं रहती...
जब मैं ऑफिस से आती
खुल जाता हमारी यादों का पिटारा
और रात ढले हौले-हौले बन्द होता...
घर का हर कोना महकता रहता
माँ की खुशबू से...
बॉलकनी में जाते वक्त माँ का हाथ हिलाना
आने से पहले यूँ खड़े-खड़े इन्तज़ार करना...
आज मन दुखी है, माँ को याद करता है...
मैं बैठी हूँ सात समन्दर पार...
ढूँढती हूँ उस खुशबू को
जो दब गई है कहीं धूल में...
झाड़ती हूँ धूल और रख लेती हूँ खुशबू को सहेजकर...
रसोई में खोजती हूँ कुछ डिब्बों में...
खुशी से बाछें खिल जाती हैं...
माँ के हाथों से बने कचरी और पापड़ पाकर
चूल्हे पर जल्दी-जल्दी भूनती हूँ
तभी दिख जाती है माँ की  पसन्द  की चाय...
उन्हीं की तरह बनाती हूँ छोटे से भगोने में
खूब पका-पकाकर...
अब बैठ जाती हूँ, चाय की चुस्की लेती हूँ
कचरी पाप खाती हूँ...
पर जाने क्यों होठों तक आते ही
सील जाती है कचरी
और नमक भी जाने  क्यों तेज सा लगता है...
कुछ सीली-सीली, कुछ गीली-गीली कचरी
चाय की चुस्की या फिर दबी-दबी सिसकी
सूनी बॉलकनी, सूना घर
रसोई में बसी माँ के खाने की खुशबू आज भी है
और आज भी है इन्तज़ा
अलगनी पर टँगे कपड़ों को
तहाने का...
आज भी शीशे पर चिपकी बिन्दी को
है इन्तज़ार उन हाथों का
मेरी नन्हीं चिरैया को है इन्तज़ार
उन मीठी-मीठी बातों का...
मैं सब यादों को समेटकर
माँ से मिलने के दिन
लग जाती हूँ उँगलियों पर गिनने...
-0-
2-मंजूषा मन

घर के तहखाने में आज जाकर
सब सामान उथल-पुथल कर बैठी
खूब ढूँढा
खूब ढूँढा
पर न मिला
होना तो था यहीं कही !

फिर खोले पुराने डिब्बे,
टोकरियाँ पलटाई
पोटलियों की गाँ खोलीं
हाँ भी नहीं ..

फिर कोने में दिखी माँ की संदूकची
सोचा इसे भी देख लूँ
बेसाख्ता संदूकची खोली
और ढूँढना शुरू किया ..

दो चार चीजें हटाते ही
मिली वो गुड़िया
जो आँखें मटकाते डमक- डमक नाचती थी
अब चुपचाप दबी पड़ी !

वो राजकुमार गुड्डा
जिसके सिर पर चमकीला सेहरा था
जो घोड़े पर मटकते गाना गाता था
अब बदरंग, कुछ नहीं कहता !

कुछ बिंदियों के पत्ते
जो इन दिनों अक्सर लगाना भूल जाती हूँ
कितनी छोटी छोटी चूड़ियाँ , काला कंगन
अब तो बिटिया के तक न आएँ !

देखती रही लट पलटकर जाने कब तक
फिर उठ बैठी निश्वास
जंगीला हो चला था ताला बस वही बदला
और संदूक में मिला था
इन सब के साथ मेरा बचपन भी
जो सहेजा था माँ ने...

-0-
3-मेरी माँ -
सत्या शर्मा कीर्ति

आज अचानक कहा
मेरी माँ ने मुझसे
लिख दो ना मेरे  ऊपर भी कोई कविता
और फिर  देखा मैंने माँ को ध्यान से
आज कई दिनों बाद ।

अरे ! माँ कब  हो ग बूढ़ी
सौंदर्य से उनका दमकता
वो चेहरा जाने कब ढक गया झुर्रियों से

माँ के सुंदर लम्बे काले बाल
कब हो गए सफेद ।
कब माँ के मजबूत कंधे
झुक से गए समय के बोझ से।

अचंभित हूँ मैं ...

ढूँढती रही मैं नदियों , पहाड़ों ,
बगीचों में कविता
और मेरी माँ
मेरे ही आँखों के सामने होती रही बूढ़ी

भागती रही भावों की खोज में
क्यों नही देख पाई
जब प्रकृति खींच रही थी
माँ के जिस्म पर अनेकों रेखाएँ ..

सिकुड़ती जा रही थी माँ तन से और मन से
और मैं ढूँढ रही थी प्रकृति में
अपनी लेखनी के लिए शब्द ।

जब बूढ़ी आँखे और थरथराते हाथों से
जाने कितनी आशीषें लुटा रही थी माँ ।
तब मैं दूसरों के मनोभावों में  ढूँढ रही थी कविता ।

और इसी बीच जाने कब मेरे और मेरी
कविता के बीच
बूढी हो गयी माँ ।
शर्मा कीर्ति
-0-
3- माँ( मन्जूषा मन ) के लिए
 प्रकृति दोशी

तू ही तू

तू ही माँ थी
तू ही पापा
तू ही हमारा इकलौता सहारा

दुगना काम
दुगना दर्द
दुगना तनाव
दुगने आँसू
दुगने कर्त्तव्य
दुगना दायित्व-भार
दुगनी सारी जिम्मेदारी

और शायद दुगना बोझ भी।

मगर,
दुगने प्यार
दुगना दुलार
दुगनी खुशी
दुगना आत्मविश्वास
दुगनी हिम्मत
दुगना गौरव
दुगनी ममता

और दुगनी हमारी खुशकिस्मती ।
तू अकेली थी पर अकेली ही काफी थी।।

तू ही माँ थी
तू ही पापा
तू ही हमारा इकलौता सहारा।।
 -0-

Monday, May 9, 2016

637

1-श्याम त्रिपाठी ( मुख्य सम्पादक -हिन्दी चेतना-कैनेडा)
माँ बनना आसान नहीं ,
वह हाड -मांस का केवल एक शरीर नहीं ,
वह जन्मदायिनी , जग में उससे बढ़कर ,
कोई और नहीं ।

उनके हाथों में है भविष्य ,
जो देती हैं वलिदान ,
जन्मती हैं , वीर जवान,
जो एक दिन बनते है ,
शिवाजी, राणा प्रताप ,
सुभाष और लक्ष्मीबाई जैसी संतान ।

गर्व का दिन है मेरे मित्रो ,
करो अपनी माता का सम्मान,
कितने ही बड़े हो जाओ ,
लेकिन कभी न भूलो ,
माताओं के अहसान ।

भगवान को मैंने देखा नहीं ,
मेरे लिए  मेरी माँ  ही है,
राम ,कृष्ण, जीसस, मोहमद ,
नानक , बुद्ध सभी भगवान ।

धन्य !धन्य ! वह धरती है ,
जिसमें माँ की पूजा होती है,
बालक की खातिर वह ,
भीगे वस्त्र पर सोती है ।
-0-
2-माँ-प्रकृति दोशी

उसकी मुस्कान देख दिन ढ़ल जाता है....
साँवली सी शाम को....
उसका दिया रौशन कर जाता है

सपनों के उन अँधेरों में
उसका साथ ही उम्मीद का उजाला है
ये रूह आज जी रही है
क्योंकि उसका ही सहारा है।

सर रख के उसकी गोद में
रोका आँसुओं को पलकों पे है
क्योकि उस एक बूँद में ही उसने
अपना जीवन समेटा है।

मुझे उस आँगन की कसम है
क्योकि ये रुस्वाई है
अगर माँ को मैं भूल जाऊँ
जिसने उस आँगन में बैठ
तारों की गिनती करवाई है।

मेरे खाने के डिब्बे के पीछे
सारा जमाना मरता है
वो जान है मेरी
जिसके हाथ का खाना
मुझे रोज सताया करता है।

देसी घी ठूँसने के बाद भी
न जाने उसे क्या हो जाता है
हर वक़्त उसे मेरे भूखे होने का
सपना ही आ जाता है।

उसकी उन चूड़ियों की खनखनाहट
मुझे तबसे याद है
जबसे उसने अपने कोमल हाथो से
मेरी पीठ को शाबाशी का
मतलब समझाया है।

हाँ कुबूल लूँ आज मैं
कि जान है वो मेरी
उस काजल के लिए जो उसने
अपनी आँखों से बहाया है।

माँ मुझे इस प्यार की कसम
जो गले से तुझ आज न लगाया
उस रोटी का वास्ता मुझे जिसे तूने
अपनी जली उँलियों से खिलाया है।

-0-

Monday, October 12, 2015

ज़िन्दगी



1-सात पन्ने- प्रकृति दोशी
(प्रकृति दोशी-मंजूषा मन की पुत्री है। यह कविता 5 साल पहले लिखी गई थी, जब प्रकृति की अवस्था  11 वर्ष थी)

ज़िन्दगी के सात पन्नों पर
एक छोटा- सा शब्द खो गया।

बचपन ने ढूँढा पहले पन्ने पर
शुरुआत ने ढूँढा दूसरे पन्ने पर
दोनों हुए नाकाम
फिर....
डर ने कहा - क्यों न हम
मिलजुल कर ढूँढे
और काम शुरू हुआ।
पर छठे पन्ने तक पहुँचने पर
सब थक गए।
लेकिन;
मेहनत अपने दोस्त साहस को लेकर
सातवें पन्ने पर पहुँची
उन दोनों ने
सबसे पहले ढूँढ लिया
उस शब्द को जो है ज़रूरी
और वो शब्द है-
मौत   
एक ऐसा शब्द
जो तब लिखा जाना है
जब
ज़िन्दगी का अंत  होता है।
-0-
 2-दोहे प्रीत भरे

शशि पाधा
1

ख़ता हुई यह पूछकर, कैसे आप जनाब

रोज़-रोज़ मिलने लगे, ख़त में फूल गुलाब |

2

प्रेम रंग ऐसा चढ़ा, छुड़ा गयी मैं हार

मरने की न चाह हुई, जीना भी दुश्वार |

3

प्रेम रोग की औषधि, मिलती है किस गाँव

नगर-डगर खोजा-थकी, ढूँढ न पायी ठाँव |

4

दोपहरी की धूप में, छत पर जलते पाँव

सूरत तेरी देख ली, पायी शीतल छाँव |

5

पंख बाँध मन प्रीत के, जाऊँ अम्बर पार

जिन गलियों में तू बसे, बसा वहीं संसार ||

6

बिन पाती, संदेश बिन, बिन शब्दों की डोर

उड़ी प्रीत की ओढ़नी, नैना थामे छोर |

7

बगिया में डोले फिरे, मालिन चुनती फूल

माली चुनता हर घड़ी, बिखरे पैने शूल |

8

ना मैं पर्वत जा चढ़ी, ना जोगन का वे

मेरी कुटिया है वहाँ, तू बसता जिस देश |

9

मीरा राधा जब मिलीं, मथुरा में इक रात

इक दूजे को भेंट की, बंसी की सौगात|

10

कोरे कागज़ में भरी, अक्षर- अक्षर प्रीत

दो नयनों की तूलिका, रंग भरे मनमीत |



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