1-तुम पुकार लेना- सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
हाँ, आऊँगी लौटकर
बस तुम पुकार लेना मुझको
जब बरस रही हो यादें
कुहासे संग किसी अँधेरी सर्द रात में
और वह ठण्डा एहसास जब
कँपकँपाए
तुम्हारे वजूद को
हाँ, पुकार लेना मुझको
जब संघर्षों की धूप
झुलसाने लगे तुम्हारे आत्मविश्वास को
उग आए फफोले
तुम्हारे थकते पाँवों में
जब मन की पीड़ा
हो अनकही
हाँ, पुकार लेना मुझे
जब उम्र की चादर होने
लगे छोटी
जब आँखों के सपने
कहीं हो जाए गुम
जब हाथों की पकड़
होने लगी ढीली
जब सम्बन्धों की डोर
चटकने सी लगे
हाँ,
पुकार लेना मुझको
मैं आ जाऊँगी लौटकर
हाँ, बस एक बार
पुकार लेना मुझको।
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एक नदी बहती है
मन की तलहटी में
संतोष की
सब्र की धाराएँ पोषती
रहती हैं उसे
आँखें मूँद कर
दुनिया के कोलाहल को
बरज देती हूँ भीतर आने से
अपने साथ बहती हूँ
झूमती हूँ
बढ़ती हूँ
बतियाती हूँ
भीगती हूँ
निनाद सुनते हुए खो जाती हूँ
ख़ुद से ही मिल जाती हूँ
दूर, बहुत दूर चली जाती हूँ सबसे
ताकि पलट कर आ सकूँ वापस
समुद्र की एक लहर की तरह
जो किनारों को छूकर लौट आती है
अपनी जगह पर
लहर बाँच लेती है
समुद्र के भीतर का खालीपन
तभी तो लौट आती है
वापस अपनी जगह।
दुःख पसलियों पर ज़ोर-ज़ोर से दस्तक देता है
सुख वो लहर है जो आती है
आपके पाँव भीगोकर
पलट जाती है
3- खुशियाँ रोप लें -रमेश कुमार सोनी
आज बाग में फिर कुछ कलियाँ झाँकी
पक्षियों का झुंड
शाम ढले ही लौट आया है
अपने घोंसलों में दाने चुगकर
गाय लौट रही हैं
गोधूलि बेला में
रोज की तरह रँभाते हुए
क्या आपने कभी इनका विराम देखा?
वक्त ना करे कभी ऐसा हो
जैसा हमने देखा है कि-
कुछ लोग नहीं लौटे हैं-
अस्पताल से वापस,
हवा-पानी बिक रहा है
नदियों के ठेके हुए हैं
प्याऊ पर बैनर लगे हैं;
पानी पूछ्ने के रिवाज गुम हुआ है
साँसों की कालाबाज़ारी में-
ऑक्सीजन का मोल महँगा हुआ है।
सब देख रहे हैं कि-
श्मशान धधक रहे हैं
आँसू की धार सूख नहीं पा रहे हैं
घर के घर वीरान हो गए हैं
इन सबके बीच आज भी लोग
कटते हुए पेड़ों पर चुप हैं
प्लास्टिक के फूल बेचकर खुश हैं
खुश हैं बहुत से बचे- खुचे हुए
लोग
मोबाइल में पक्षियों की रिंगटोन्स से।
आओ आज तो सबक लें
भविष्य के लिए न सही
अपने लिए ही बचा लें-
थोड़ी हवा,पानी, मिट्टी, भोजन और जिंदगी
आओ रोप लें खुशी का एक पेड़
एफ.डी. के जैसे!
पुण्य मिलेगा सोचकर!
मुझे विश्वास है कि-
तुम्हारी ही हथेली में
एक दिन जरूर
खुशी का बीज अँखुआएगा।
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