1-अब लिखती नहीं कविताएँ
सत्या शर्मा ' कीर्ति '
कि आजकल मैं
लिखती नहीं हूँ कविताएँ
क्योंकि रोप दिए हैं मैंने
उसके नन्हे बीज
अपने हृदय की उर्वर भूमि में ।
जहाँ निकलते हैं रोज नाजुक-सी कोंपल ,
क्योंकि रोप दिए हैं मैंने
उसके नन्हे बीज
अपने हृदय की उर्वर भूमि में ।
जहाँ निकलते हैं रोज नाजुक-सी कोंपल ,
चटकती हैं कलियाँ और खिलते हैं फूल
फिर महक-सी जाती हूँ मैं
चम्पा और गेंदे की खुशबू से ।
सूरज की नन्ही-सी किरणें खेलती है
फिर महक-सी जाती हूँ मैं
चम्पा और गेंदे की खुशबू से ।
सूरज की नन्ही-सी किरणें खेलती है
जब उन पंखुड़ियों से और
सहलाती है शब्दों की
किसी नई पौध को
तो खिल सी जाती हूँ मैं और
फिर नहीं लिखती हूँ कविताएँ
रोप देती हूँ भावों को
देती हूँ पनपने गुलमोहर डालियों को
देखती हूँ छुपकर
आता है चन्दा
उतरता है पालकी से
और बिखेरता है रंग
किसी नई पौध को
तो खिल सी जाती हूँ मैं और
फिर नहीं लिखती हूँ कविताएँ
रोप देती हूँ भावों को
देती हूँ पनपने गुलमोहर डालियों को
देखती हूँ छुपकर
आता है चन्दा
उतरता है पालकी से
और बिखेरता है रंग
उन नन्ही कोंपलों पर ।
फिर मैं मूँद लेती हूँ आँखें
बहने देती हूँ शब्दों को
अपनी ही सुगंधित बयार में
कई बार चुपके से आती है लहरें
छुपकर अपनी सखी नदियों से
और निखार देती भावों की
कच्ची पंखुड़ियों को
धो देती है उन पर लिपटे निरर्थक
जज्बात को ।
हाँ , अब लिखती नहीं हूँ
कविताएँ, देती हूँ उन्हें पनपने और
बहने देती हूँ शब्दों को
अपनी ही सुगंधित बयार में
कई बार चुपके से आती है लहरें
छुपकर अपनी सखी नदियों से
और निखार देती भावों की
कच्ची पंखुड़ियों को
धो देती है उन पर लिपटे निरर्थक
जज्बात को ।
हाँ , अब लिखती नहीं हूँ
कविताएँ, देती हूँ उन्हें पनपने और
खिलकर निखरने ।
फिर ....
उन्हें हौले से तोड़कर
बनाती हूँ कोमल भावों का
एक खूबसूरत गुलदस्ता।
--0—
फिर ....
उन्हें हौले से तोड़कर
बनाती हूँ कोमल भावों का
एक खूबसूरत गुलदस्ता।
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2-ज्योत्स्ना प्रदीप की कविताएँ
सरस्वती वंदना (चौपाई)
विद्यारूपे ! श्लोक
,मंत्र में ,
तेरी लय हर वाद्य यंत्र में।
वेद, ऋचा हर मधु
प्रसाद सा,
आखर -आखर ताल नाद सा ।
हे शुभदे ! तुम नभ -भूतल में,
नग ,पर्वत में
सागर जल में ।
अमिट मधुर सी इक सरगम है,
हर पल तेरा आराधन
है ।
जग छल से माँ आँसू छ्लके,
आँखें ना ही दोषी पलकें ।
फिर से ना हो सुख ये कीलित,
शान्ति कान्ति दो सुखद अपरिमित।
जीवन जब भी सघन निशा है,
तेरे पग-तल दिव्य
-दिशा है।
मिटे तिमिर वो विमल छंद दो,
महातारिणी
महानंद दो ।
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सवाल देश मान का!(प्रमाणिका छंद)
ज्योत्स्ना प्रदीप
चलो -चलो रुको नहीं ।
कभी नहीं झुको नहीं।।
उमंग है तरंग है ।
उछाह अंग -अंग है ।।
हिया बना चिराग है।
बड़ी अजीब आग है।।
नहीं कभी हताश हो ।
सुदूर भी प्रकाश हो ।।
सलीम या दिनेश है ।
अनेक वेश ,भेष
है।।
मिले सभी गले
चलो ।
नहीं छलो बढ़े चलो।।
पुकार प्रीत की सुनो ।
न फूल ,शूल को चुनो।।
न वेदना ,न पीर
हो ।
हिया नहीं अधीर हो।।
न द्वेष ,लोभ ,क्रोध हो ।
न जात का विरोध हो।।
सवाल देश आन का ।
सवाल देश मान का ।।
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3- तुम और कविता
मंजूषा मन
पता नहीं क्या हो जाता है
आजकल
कि जब भी सोचा
लिखूँ कोई कविता...
आँखों में तैरने लगी
तुम्हारी ही तस्वीर
तुम ले लेते हो कविता का रूप।
तुम चाँद की तरह बने रहे
मन के आकाश में,
मन पर जब छाए दर्द के बादल
तुम चाँद बन जगमगाते रहे।
अब अँधेरा छुप गया है
काजल की डिबिया में।
हवा बनकर तुम ही
बहते रहे साँसों के आने और जाने में
तुम खुशबू बनकर महकते
रहे जीवन में।
मन के जंगल में तुम्हारे ही सपने
नन्हे नन्हे हिरन के छौने बन
धमाचौकड़ी मचाते हैं...
और तुम्हारी ही आहट पाकर
छुप जाते हैं किसी ओट में।
तुम सिखा रहे हो जीना
उन आशाओं को
जो छोड़ चुकी थी उम्मीदों का दामन।
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