पथ के साथी

Monday, June 14, 2021

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1- हरभगवान चावला

भेड़ें : कुछ कविताएँ

1.

हर भेड़ तक पहुँच जाते हैं

क़ानून के लम्बे हाथ

इन हाथों की पहुँच

हर भेड़िये तक भी होती है

पर लाख सर पटकने पर भी

भेड़ें कभी नहीं समझ पाईं कि

भेड़िये का हाथ क़ानून के हाथ में है

या क़ानून का हाथ भेड़िये के हाथ में।

2.

भेड़ियों ने भेड़ों को खदेड़ दिया

घसियाले मैदानों से बाहर

भूखी-प्यासी भेड़ें खेत-दर-खेत

बंजर धरती पर भटकती रहीं

घास और पानी की तलाश में

और फिर पानी की उम्मीद में

एक-एक कर

सूखे, अंधे कुएँ में कूद गईं।

3. 

दुनिया में

कहीं नहीं बची तानाशाही

अब सर्वत्र लोकतंत्र है

और इस लोकतंत्र में

भेड़ें

किसी भी भेड़िये को

शासक चुनने के लिए आज़ाद हैं।

4.

भेड़िया मुख्य अतिथि होता है

भेड़ों के सम्मेलनों में

भेड़ों जैसा ही होता है

भेड़िये का भेस

भेड़ जैसा दीखता भी है भेड़िया

भेड़ें उसकी आरती उतारती हैं

भेड़ें भेड़िये की जात को गालियाँ देती हैं

भेड़िया मुस्कुराते हुए सुनता है

भेड़ें भी मुस्कुराती हैं भेड़िये के साथ

भेड़िया अंततः मंच पर होता है

भेड़ों की तारीफ़ करता

भेड़ों की दुर्दशा पर आँसू बहाता

भेड़ें इतनी प्रभावित होती हैं कि

भेड़िया हो जाना चाहती हैं

भेड़ और भेड़िये का फ़र्क़ मिट जाता है

भेड़ें भेड़िये को देती हैं स्नेहोपहार

भेड़िया आभार जताता है

भेड़िया प्रसन्न है कि क़ायम है

भेड़ों-भेड़ियों के बीच परंपरागत रिश्ता

भेड़ों की इसी निष्ठा पर ही तो टिका है

भेड़िये का साम्राज्य।

5.

बाड़े में अलसा रही हैं भेड़ें

और भेड़िये घात लगाए बैठे हैं

सावधान पहरुए!

आग न बुझने पाए।

6.

भेड़ें गद्गद हैं

कि भेड़िये उनके साथ

एक ही पाँत में बैठ

जीम रहे हैं भोज

पर भेड़ें क्या यह भी जानती हैं

कि भोज में परोसी गई हैं

भेड़ें ही।

7.

भेड़िया भेड़ों की पीठ सहलाता है

बहलाता है उन्हें इस अंदाज़ में

कि भेड़ों को ज़रा सा भी अंदेशा नहीं होता

कि दरअसल वह उन्हें बरगला रहा है

भेड़िये की ज़बान से शहद टपकता रहता है

कभी-कभी टपक पड़ता है भेड़ियापन भी

पर तुरंत ही वह सँभाल लेता है बात

और हालात

भेड़िये की आँखें तेज़ टॉर्च होती हैं

उस टॉर्च की रोशनी में

वह तौलता रहता है

भेड़ों की देह का मांस

अपनी बात ख़त्म करते-करते

वह निर्णय कर चुका होता है

कि कौन सी भेड़ बनेगी

आज रात का भोजन।

-0-

जेठ की दुपहरी/ डॉ.महिमा श्रीवास्तव


छाया-रामेश्वर काम्बोज-2008

अमलतास से धूप झरती

किरणें रोशनी पर्व मनातीं हैं

आम्रकुंजों में कोकिल कूकता

जामुनों  पुरवाई महकाती हैं ।

                                   उन्मुक्त व्योम में विचरता दिनकर

                                 तरुओं की छाँव पाने को मृग विकल,

                                 बेला, चम्पा, मालती भी कुम्हलाई है

                                वारिदों की राह तके जग यह सकल।

  विरह- पीड़ा से जिनके उर में ज्वाला

 जेठ और भी तपा तन- मन सारा,

प्रभंजन उड़ा धूल,  मचा शोर घोर

कहाँ ग वे ,जिन पर तन- मन वारा।

                          सुख- दुख का चक्र बताया जाता

                        चौमासा अब आने को ही तो है,

                          हरित ओढ़नी पहिने प्रकृति के सँग

                        बिरहन मन का मीत पाने को है।

    -0- चिकित्सक, अजमेर