मंजु मिश्रा
(माँ-बाप
की तरफ से कुछ शब्द अपने बड़े हो गए बच्चों के लिए आजकल घर-घर में ये फिकरे आम हो
गए हैं- "you don't know mom/dad or you won't understand it"-
बस उसी अनुभव से उपजी यह कविता )
हमें नादाँ समझते हो,
और ये भूल बैठे हो
हमीं ने उँगलियाँ थामीं तो तुमने
चलना सीखा है
**
न होते हम अगर उस दौर में तो तुम
जरा सोचो
गिरते और सँभलते कितनी चोटें खा
गए होते
**
मगर ये फर्ज था माँ-बाप का,
कर्जा नहीं तुम पर
न रखना बोझ दिल पर और चुकाने की न
सोचो तुम
**
जहाँ भी तुम रहो खुशहाल बस इतनी- सी ख्वाहिश है
हमारा क्या है अपनी जिंदगी तो जी चुके हैं हम
**