पथ के साथी

Thursday, February 27, 2014

वह दौर यह दौर

मंजु मिश्रा

(माँ-बाप की तरफ से कुछ शब्द अपने बड़े हो गए बच्चों के लिए आजकल घर-घर में ये फिकरे आम हो गए हैं- "you don't know mom/dad  or you won't understand it"- बस उसी अनुभव से उपजी यह कविता )
हमें नादाँ समझते हो, और ये भूल बैठे हो
हमीं ने उँगलियाँ थामीं तो तुमने चलना सीखा है
                   **
न होते हम अगर उस दौर में तो तुम जरा सोचो
गिरते और सँभलते कितनी चोटें खा गए होते
                   **
मगर ये फर्ज था माँ-बाप का, कर्जा नहीं तुम पर
न रखना बोझ दिल पर और चुकाने की न सोचो तुम
                   **
जहाँ भी तुम रहो खुशहाल बस इतनी- सी ख्वाहिश है
 हमारा क्या है अपनी जिंदगी तो जी चुके हैं हम
                   **