पथ के साथी

Saturday, December 25, 2021

1172-जनम-जनम की प्रीत

 दोहे-रश्मि विभा त्रिपाठी

1


शेष कामना कुछ नहीं
, क्या माँगूँ अब दान।

प्रेम तुम्हारा है प्रिये, ईश्वर का वरदान॥

2

बाट प्रिये की जोहती, बैठी बारह मास।

उनके बिन दूभर हुआ, अब लेना यहसाँस॥

3

प्रेम तुम्हारा है प्रिये, जीवन का आधार।

तुमें ही तो है बसा, मेरा निज संसार॥

4

कैसे तुम बिन हो प्रिये, अब जीना आसान।

एक तुम्हीं में है बसी, मुझ बिरहन की जान॥

5

प्रेम- कोकिला गा रही, मन- बगिया में गीत।

प्रियवर तुमसे बँध गई, जनम-जनम की प्रीत॥

6

प्रेम सुनहरा जब कभी, चढ़े किसी के अंग।

जीवन भर उतरे नहीं, फिर यह गाढ़ा रंग॥

7

झंझा का अभिमान प्रिय, होगा नष्ट समूल।

अंक छिपा लूँ मैं तुम्हें, हाथ मलेगी धूल॥

8

प्रिय श्रद्धा से चूम लें, मेरा बेसुध माथ।

संजीवनि मानो धरी, प्रभु ने आकर हाथ॥

9

तुम्हें समर्पित हैं प्रिये, मेरे तन-मन-प्राण।

पग-पग पर तुमसे मिला, मुझे पूर्ण परित्राण॥

10

तुम्हें देख जीती रहूँ, तुम मेरी अकसीर।

कण्ठ लगाकरके प्रिये, पिघला देते पीर॥

11

जकड़ नहीं पाए कभी, पीड़ाओं का पाश।

प्रियवर ने सौंपा मुझे, सुन्दर सुख-आकाश॥

12

दिन सौरभ-सौरभ हुआ, महक उठी हर रात।

जबसे हिय-सर में खिला, एक प्रेम-जलजात॥

13

बाधा आन विकल करे, वे उसके ही पूर्व।

भर देते मुझमें प्रिये, साहस एक अपूर्व

14

जब देखूँ, देता जिला, प्रिये तुम्हारा रूप।

मुझको लगती ही नहीं, इस दुनिया की धूप॥

15

वंदन नितप्रति मैं करूँ, जपूँ उन्हीं का नाम।

प्रिय ने सौंप दिए मुझे, अपने सुख-आराम॥

16

ठेल दिया तुमने परे, प्रियवर! पीर-पहाड़।

डूब गया मन मोद में, आई सुख की बाढ़॥

17

मैं बड़भागी हूँ प्रिये, मिला तुम्हारा साथ।

धरती पर पग ना धरूँ, दुख के लगूँ न हाथ॥

18

पाया जबसे है प्रिये, तेरा प्रेम अनूप।

पीर-हिमानी गल गई, तन सहलाती धूप॥

19

जिजीविषा मुझमें भरे, उनका शुभ आशीष।

जहाँ चरण प्रिय के पड़ें, अपना धर दूँ शीश॥

20

और मुझे क्या चाहिए, पाके तुमको मीत।

अधरों से आठों पहर, झरता सुख-संगीत॥

21

प्रेम- बाँसुरी पर प्रिये, जब तुम गाते गान।

मेरा तन-मन झूमता, ऐसी मादक तान॥

22

एक अलौकिक सुरभि से, महका मेरा गेह।

मेरे आँगन झर रहा, प्रिय का निर्मल नेह॥

23

निर्मल नेह-सुधा मिली, मिटी युगों की प्यास।

तुम तृप्ति का स्रोत प्रिये, पूरन मेरी आस॥

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