1-मंजूषा मन
रेगिस्तान
लहलहाते प्रेम वृक्ष
काट लिए गए,
घने घने जंगल उजाड़ डाले गए
बंजर कर दी गई
मन की जमीन।
नहीं पाई नेह को नमी
न हुई अपनेपन की बारिश
न मिल पाए
प्रेम के उपयुक्त बीज ही,
बेहिसाब बरसे नमकीन आँसुओं ने
और भी किया बंजर।
धीरे धीरे,
पत्थर होती गई मन की ज़मीन
खोती गई
अपने भावों की उर्वरता
जो बनाये रखती थी
जीवन मे हरियाली।
पत्थर और कठोर हुए
टूटे
टूट कर बिखरे
नष्ट करते रहे स्वयं को
और बदल गए
रेगिस्तान में।
मन की धरती
सदा नहीं थी रेगिस्तान...
प्रेम बन बरसो तो,
सदा नहीं रहेगी रेगिस्तान।
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2-ज्योत्स्ना
प्रदीप
1-हरियाली का करो नहीं
वध {चौपाई }
पादप अपनें हैं ऋषि-मुनि से
कभी देवता कभी गुनीं से ॥
योगी जैसे सब कुछ त्यागे
इनसे ही तो हर सुख जागे ॥
सुमन दिये हैं दी है पाती
नसों -नसों पर चली दराती ॥
सब रोगों की हैं ये बूटी
फिर भी श्वासें इनकी लूटी ॥
सखा कभी ये कभी पिता है
सबकी इनसे सजी चिता है ॥
मानव -काया जब ख़ाक बनी
इनकी काया ले राख बनी ॥
मानव तेरी नव ये नस्लें
झुलसाई हैं इसनें फसलें ॥
वध हैं करते बल से छल से
डरे न आने वाले कल से ॥
हरियाली का करो नहीं वध
भूल न मानव तू अपनीं हद
जीवन को ना बोझ बनाओ
पौधे रोपें मिलकर आओ ॥
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2-तुमको तन -मन सौंपा ( आँसू
छन्द)
1
तुमको तन -मन सौंपा था
तब गाती , बलखाती थी।
उर -सागर गहरे पानी
पंकज खूब खिलाती थी।
2
छल बनकर तुम ही मेरी
आँखों को छलकाते हो ।
हास
छीनकर अधरों का
बस आँसू ढुलकाते हो !
3
धरम -करम से उजली थी
अपाला ऋषि कुमारी थी ।
देह रोग से त्याग दिया
ये पीड़ा घन भारी थी !
4
मन ना काँपा पल तेरा
आँखें तूनें ही फेरी ।
सघन विपिन में छोड़ दिया
दमयन्ती मै थी
तेरी ।
5
इंद्र छले पल में मुझको
तेरा दिल भी ना सीला
कैसा ऋषि स्वामी मेरा?
युगों करा था पथरीला !!
6
मै भोली तुझे बुलाया
कुंती का कौतूहल था ।
सपन बहाया था जल में
तुझ पर ना कोई हल था?
7
आदर्शों की हवि तुम्हारी
सिया -सपने जले सारे ।
सागर
नें तज दी
सीपी
निर्जन में मोती धारे !
8
पापी लीन रहा देखो
मेरे केशों को खींचा !
माँग भरी मेरी जिसनें
सर उसका क्यों था नीचा ?
9
हिय झाँका होता मेरा
इक ऋतु
ही उसमें रहती ।
बुद्ध पार करे भव सागर
यशोधरा नद- सी बहती ।
10
ऋषि मुनि राजा रे मन के
धरम -करम तप ध्यान किया।
नारी मन गहरे दुख का
तूनें ना रे मान किया।
11
योग -भोग ,जागे- भागे
बनों कभी तो आभारी !
तेरे कुल के अंकुर की
मूल सभी मैनें धारी !
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