पथ के साथी

Thursday, September 7, 2023

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 1-आया नहीं बसन्त

डॉ. उपमा शर्मा  

  



साँसों के आरोह-अवरोह

चलते रहे दिग्दिगन्त। 

कितने मौसम बीत ग हैं। 

फिर भी आया नहीं बसन्त। 

 

पेड़ों पर पतझड़ का मौसम

रुक गया आकर क्यों इस बार

कोमल कोंपलें देखने को

थक गईं अँखियाँ पंथ निहार

स्वागत में अब इस आगत के

लिख डाले मैंने गीत अनन्त

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

 

लिपट तितलियाँ ठूँठों से ही

करती रहती बस मनुहार। 

बसंत बिना सूने हैं मौसम

पुष्प बिना है  सूना संसार। 

अगन धरा पर बरस रही है

सूरज बन गया आज महन्त

 

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

 

रूठ ग बागों से भँवरे

डाली कितनी हुईं  उदास

फूलों के मौसम में पतझड़

मिलने की टूटी है आस

अब पतझड़ नहीं जाने वाला

रुक गया हो जैसे जीवन पर्यन्त

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

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चूक / अनीता सैनी 'दीप्ति'

 


प्रिय ने

बादलों पर घोर अविश्वास जताते हुए

खिन्न हृदय से चिट्ठी चाँद को सुपुर्द की

मैंने कहा- यक्ष को पीड़ा होगी

उसने कहा-

बादल भटक जाते हैं

तब यही कोई

रात का अंतिम पहर रहा होगा

चाँद दरीचे पर उतरा ही था

तारों ने आँगन की बत्ती बुझा रखी थी

रात्रि गहरा काला ग़ुबार लिये खड़ी थी

जैसे आषाढ़ बरसने को बेसब्र हो

और कह रहा हो-

'नैना मोरे तरस गए आजा बलम परदेशी।'

ऊँघते इंतज़ार की पलकें झपकीं

मेरी चेतना चिट्ठी पढ़ने से चूक गई

चुकने पर उठी गहरी टीस

उस दिन जीवन ने नमक के स्वाद का

पहला निवाला चखा था।

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