पथ के साथी

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Saturday, June 9, 2007

मरुस्थल के वासी



श्याम सुन्दर अग्रवाल





गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’
थोड़ी झिझक के बाद एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’
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रिश्ता


डा श्याम सुन्दर 'दीप्ति'


"मोगा से रास्ते की सवारी कोई न हो, एक बार फिर देख लो।" कहकर रामसिंह ने सीटी बजाई और बस अपने रास्ते पड़ गई।
बस में बैठे निहालसिंह ने अपना गाँव नजदीक आते देख, सीट छोड़ी और ड्राइवर के पास जाकर धीमे से बोला, "डरैवर साब जी, जरा नहर के पुल पर थोड़ा-सा ब्रेक पर पाँव रखना।"
"क्या बात है? कंडक्टर की बात नहीं सुनी थी?" ड्राइवर ने खीझकर कहा।
"अरे भई, जरा जल्दी थी। भाई बनकर ही सही। देख तू भी जट और मैं भी जट। बस जरा-सा रोक देना।" निहालसिंह ने गुजारिश की।
ड्राइवर ने निहालसिंह को देखा और फिर उसने भी धीमे से कहा, "मैं कोई जट-जुट नहीं, मैं तो मजबी हूँ।"
निहाले ने जरा रुककर कहा,"तो क्या हुआ? सिख भाई हैं हम, वीर [भाई] बनकर रोक दे।"
ड्राइवर इस बार जरा-सा मुसकाया और बोला, "मैं सिक्ख भी नहीं हूँ, सच पूछे तो।"
"तुम तो यूँ ही मीन-मेख में पड़ गए हो। आदमी ही आदमी की दवा होता है। इससे बड़ा भी कुछ है।"
जब निहाले ने इतना कह तो ड्राइवर ने खूब गौर से उसको देखा और ब्रेक लगा दी।
"क्या हुआ?" कंडक्टर चिल्लाया, "मैंने पहले नहीं कहा था? किसलिए रोक दी?"
"कोई नहीं, कोई नहीं। एक नया रिश्ता निकल आया था।" ड्राइवर ने कहा और निहालसिंह तब तक नीचे उतर गया था।
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