पथ के साथी

Monday, May 12, 2025

1462

 

रणभेरी

डॉ. सुरंगमा यादव

 


पल में क्या से क्या हो गया, समझ नहीं ये कुछ आया

 खुशी रुदन में बदल गथी, खूनी मंजर था छाया

अभी सजा सिंदूर माँग में, मेंहदी का रंग गहराया

 खुशियाँ सारी ढेर कर गया क्षण में आतंकी साया

कायरता भी शर्मसार है, ऐसा कत्लेआम किया

सिंदूरी सपनों को पल में,अरथी पर है सुला दिया

माँ का सूना आँचल कहता, लाल कहाँ तुम चले ग

वापस आए नहीं दुबारा किस पापी से छले ए ।

नाम धर्म का लेकर अपने धर्म को भी वे  जाते हैं

खाने के लाले  हैं घर में, खैरात माँग इतराते हैं

धर्म नहीं है उनको प्यारा, नफ़रत, हिंसा प्यारी हैं

अपनी कौमों के माथे पर लिखते वे गद्दारी हैं

दहशतगर्दी फैलाना ही, धर्म जिन्होंने माना है

इंसानी जानों की कीमत, उनको क्या समझाना है।

शृगालों ने खुद ही आकर शेरों को ललकारा है

उनका दण्डित करना ही अब पहला धर्म हमारा है

प्रेम- अहिंसा धर्म हमारा, तब तक हमें सुहाता है

शत्रु हमारी ओर न जब तक  अपनी आँख उठाता है

दुष्ट- दलन के लिए कृष्ण को चक्र चलाना पड़ता है

मर्यादा पुरुषोत्तम को भी धनुष उठाना पड़ता है

जिसको प्रेम- शांति की भाषा, अब तक  कभी नहीं भाई

उसे शस्त्र की भाषा  में  समझाने की अब बेला आई ।

जिसे ‘सीजफायर’ में भी बस ‘फायर’ याद ही रहता है

उसके इरादे ‘सीज़’ करें हम, बच्चा-  बच्चा कहता है।

धोखे का ही रक्त रगों में जिसकी बहता रहता है

उसकी क्रूर कुचालों की इतिहास सच्चाई कहता है

सेना की रणभेरी ने अब ऐसा राग सुनाया है

दहशत फैलाने वाला ही, खुद दहशत में आया है

केवल ये ‘सिंदूर’ नहीं है, शिव का ताण्डव नर्तन है

वे भी बचा नहीं पाएँगे,जिनका मिला समर्थन है

 

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1461

  1-तुम धरा थीं/  शशि पाधा


तुम धरा थीं

तेरे आँचल से बँधी थी

सारी प्रकृति

तुम आकाश थीं

तेरे आँगन में खेलते थे

सारे ग्रह-नक्षत्र

तुम सागर थीं

तुममें समाहित थी

सारी नदियाँ

तुम ब्रह्मांड थीं

तुझमें ही लीन थीं

हवाएँ–दिशाएँ

और ...

इस सब से

अनभिज्ञ-अस्पृह

तुम...केवल तुम थी

तुम ... माँ थीं

-0-

2-एक थी यशोधरा /  प्रीति अग्रवाल 

नीरव रात्रि
एकांत में निकले
खोजने सत्य
सिद्धार्थ महल से
न कोई विदा
यशोधरा से माँगी
न कोई संकेत
जिससे जान पाती
नन्हा राहुल
छोड़ मैया सहारे
यशोधरा के
मन में निरन्तर
यही टीसता
क्या मैं बनती बाधा
साथ न देती
क्या यही सोचकर
निकल पड़े
वे बिना कहे-सुने
क्यों मन मेरा
पहचान न पाए
यही मनाऊँ
पाएँ ज्ञान प्रकाश
मोक्ष का मार्ग
जनहित दिखाएं
हूँ बड़भागी
उनकी अर्धांगिनी
प्रेम पात्र बनी मैं!!
-o-