पथ के साथी

Friday, April 5, 2024

1408-महाभारत : ‘मैं’ से मुक्ति

                   - विजय जोशी, पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल

 


       पौराणिक प्रसंग किसी भी धर्म ग्रंथ में समाहित हों, उनकी प्रासंगिकता स्वयं सिद्ध है। इनमें एक ओर जहाँ सरल भाषा में अपनी बात आम जन तक पहुँचाने का भाव होता है, वहीं दूसरी ओर मंतव्य भी। इस दौर में कहें, तो शाब्दिक प्रसंग हार्डवेयर तथा संदेश सॉफ्टवेयर। सो एक मित्र से प्राप्त अद्भुत विचार।

        महाभारत ग्रंथ से सभी परिचित हैं। यह मात्र दो परिवार या दो विरोधी संस्कृतियों के टकराव में सत्य के विजय का मंत्र ही नहीं, अपितु अंतस् के युद्ध का सफ़रनामा भी है।  आइए इसे पात्रों के माध्यम से समझा जाए : 

 1-धृतराष्ट्र: यह है हमारा मस्तिष्क, जो सारी सूचनाओं को संगृहीत कर सोच को कार्यरूप में परिवर्तित करता है। निर्भर हम पर करता है कि अपने विवेक से सही निर्णय लेते हैं या स्वार्थनिहित फैसला।


 2 संजय: हमारे वे मित्र या शुभचिंतक, जो ठकुर सुहाती से ऊपर उठकर न केवल हमें सच्चाई से अवगत कराते हैं, बल्कि सही मार्गदर्शन भी प्रदान करते हैं।

 3- कौरव: ये हैं अंतस्में उभरने वाली मोह माया रूपी वे भावनाएं जो हमें पथभ्रष्ट करने का पूरा प्रयास करती हैं। तुच्छ स्वार्थ या बाहरी आकर्षण की परत हमारी बुद्धि के कुमार्ग से कदमताल का प्रयोजन बनती हैं।

 4- शकुनि: वे अवसरवादी मित्र, जो हमें कुमार्ग की ओर ढकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।

 5- पांडव: ये हैं हमारी पाँच इंद्रियाँ  नेत्र, नाक, जीभ, कान और त्वचा यानी दृश्य, सुगंध, स्वाद, श्रवण और स्पर्श, जो हमारी सहायता करती हैं नीर क्षीर उर्फ़ दूध और पानी को अलग कर निर्णय पर पहुँचने में। ईश्वर का अद्भुत उपहार बशर्ते हम इनका सदुपयोग कर सकें।

 6- द्रौपदी: हमारी नैसर्गिक प्रतिभा, इच्छा, चाह या जुनून, जो हमारी 5 इंद्रियों वाली क्षमता को एक सूत्र में बाँधकर उद्देश्य प्राप्ति के साथ ही जीवन में आनंद का प्रयोजन भी बनती है। एक बात और कि यह कौरवी माया जाल से लड़ने हेतु हमारे संकल्प का सूत्र भी बनती है।  

 7- कृष्ण: तो फिर कृष्ण क्या हैं। यह है हमारी आंतरिक चेतना< जो आजीवन हमारी सारथी बनकर साथ निभाती है। इसकी आवाज सुन कार्य करना हमारा नैतिक दायित्व और सफलता की कुंजी है।

 8- कर्ण: परिवार के अग्रज होने के बावजूद राज्याश्रय के लोभ में कुमार्ग पथिक बन काल कवलित हो गए। यही है हमारा अहंका<र जो पद, प्रतिष्ठा, पैसे की चमक मिलते ही सिर चढ़कर बोलने लगता है। कुपथ की ओर धकेल देता है। 

        अहंकार हमारे सारे गुण निगल जाता है। ईश्वर से विमुख कर देता है। कहा ही गया है EGO यानी Edging God Out हृदय में कोई एक ही रह सकता है। अहंकार आते ही ईश्वर बाहर। यदि आपने इसे समाप्त नहीं किया, तो यह आपको समाप्त कर देगा।

         कुल मिलाकर भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर में महाभारत के माध्यम से उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने का एक अद्भुत संदेश दिया है। यह केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि अनाचार, अत्याचार के विरुद्ध एक जंग है, जो हमारे चेतन और अवचेतन मन दोनों के सार्थक जीवन जीने का प्रयोजन है। अब यह हम पर निर्भर है कि हम कौन सा मार्ग अंगीकार करें।

अहंकार में तीनों गए धन, वैभव और वंश ।

ना मानो तो देख लो< रावण, कौरव, कंस।

 

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