कमला निखुर्पा
रंगों से खेले
बावरे ये बदरा।
कर सोलह शृंगार
झील में झाँक
निज बिम्ब- प्रतिबिम्ब
शरमाए है कोई।
रक्तिम क्यों कपोल
संध्या रानी के
कानों में कह गईं
कुछ तो पुरवैया ।
चहक चले
बादलों के संग
विहग वृन्द
भर ऊँची उड़ान
दूर क्षितिज तलक।
पाने को एक झलक
अँखियाँ ये मेरी
क्यों खुली की खुली
झपके न पलक ।
सरकता रहा
स्यामल पट
धीरे धीरे....
ओझल हुआ
गगन रंगमंच
फिर से रचेगी
संध्या रानी
कल नई नाटिका ।