पथ के साथी

Tuesday, August 4, 2020

1020-साँझ का धुँधलका

कमला निखुर्पा

 

गगन रंगमंच

रंगों से खेले

बावरे ये बदरा।

 

कर सोलह शृंगार

झील में झाँ

निज बिम्ब- प्रतिबिम्ब

शरमाए है कोई।

 

रक्तिम क्यों कपोल

संध्या रानी के

कानों में कह गईं

कुछ तो पुरवैया ।

 

चहक चले

बादलों के संग

विहग वृन्द 

भर ऊँची उड़ान

दूर क्षितिज तलक।

 

पाने को एक झलक

अँखियाँ ये मेरी

क्यों खुली की खुली

झपके न पलक ।

 

सरकता रहा

स्यामल पट

धीरे धीरे....

ओझल हुआ

गगन रंगमंच

फिर से रचेगी

संध्या रानी

कल नई नाटिका ।