चिन्तन –मंथन
शशि पाधा
गाँव- गाँव अब शहर
हुए
दरिया सिमटे नहर हुए
सागर- चिन्ता घोर
न जाने
क्या होगा।
खुली छत,तारों से बातें
घुली चाँदनी,झिलमिल रातें
रह गई दूर की दौड़
न जाने क्या होगा !
सूरज का रथ स्वर्ण- जड़ा
दूर सड़क के मोड़ खड़ा
खिड़की बैठी भोर
न जाने क्या होगा !
गोधूलि अब धूल-भरी
छाया :रोहित काम्बोज |
बगिया क्यारी शूल -भरी
उड़ता फिरता शोर
न जाने क्या होगा !!
जंगल सब बियाबान हुए
पंछी सब परेशान हुए
कहाँ पे नाचें मोर
न जाने क्या होगा !!
ताल
तलैया सूखे-से
बरगद
बाबा रूखे- से
भूखे
-प्यासे
ढोर
न
जाने क्या होगा !!