पथ के साथी

Showing posts with label लिली मित्रा. Show all posts
Showing posts with label लिली मित्रा. Show all posts

Tuesday, February 4, 2025

1447

 

एडजस्टमेंट

लिली मित्रा

 


नीले सलवार-कमीज़ पर हरी बिंदी!!

कोई तुक बनता है क्या?

सूरज की रोशनी में घुटन

और

धुंध में जीवन का उजास

अटपटी सी सोच लगती है... ना?

एक पिंजरे में कैद पंछी आसमान को देख

जब पंख फड़कता होगा तो

ऐसा ही कुछ मन में कल्पना करता होगा…

उस पंछी के लिए 'एडजस्टमेंट' बस इतना

सा आशय रखता हो...शायद।

पर हर औरत ये कहती सुनाई देती है-

थोड़ा सा एडजस्ट करो...हो जाएगा।

एडजस्टमेंट औरत के शब्दकोश का एक जरूरी शब्द क्यों है?

और यही एक आवश्यक शब्द जब विद्रोह का बिगुल बजाता है

तो उसकी ध्वनि में अट्टहास का सुर नहीं

किसी जलतरंग की तरंग का लहरिया सुर होता है

जो पहले उसकी रगों में

फिर उसके परिवेश, तदनंतर संपूर्ण ब्रह्मांड

में फैल जाता है।

वह जुट जाती है इस शब्द के कई पर्याय बनाने में,

इस शब्द की नई व्याकरण गढ़ने में।

पर्याय का हर शब्द नए सन्दर्भानुकूल अर्थ-परिधान में

उपस्थित होता है

वो इस 'एडजस्टमेंट' का पिंजरा तोड़ता नहीं है-

पिंजरे की फांक से पूरा असमान खुद में

घसीट लेता है...

-0- फरीदाबाद, हरियाणा।

(मृदुला गर्ग जी की कहानी 'हरी बिंदी'  पढ़ने के बाद उपजी कविता)

-0-

Monday, October 16, 2023

1378-चिकौटियाँ

 

1- हथकटी ठाकुर

 


 

छुट्टी वाले दिन
जब पतिदेव
हर घंटे दो घंटे बाद रह-रहकर बोलें-'तुम्हारे हाथों की बनी हुई चाय पीने का मन कर रहा है'
'गरमागरम कॉफी पीने को जी मचल रहा है
सच बता रहें हैं हम-
हमारी आत्मा
कह उठती है-
हे प्रभु!
हमें 'शोले पिक्चर' वाले 'ठाकुर साहब' क्यों नहीं बना देते आप?
'हथकटी ठाकुर लिली की गुहार'

-0-

 2- हॉलोविन की डायन



 

सुनो लड़कियो! शायरों से खुद को बचाकर रखना,

बहुत ही 'डेंजरस प्रजाति' हैं- रे बाबा!

एक शायर साहब ने कहा है -
'चाँद शरमा जाएगा, चाँदनी रात में
यूँ ना जुल्फों को अपनी सँवारा करो'
हैं!
...
मतलब?
...
हम बेचारी हॉलोविन की डायन बनी फिरती रहें
क्या!!

-0-

3- इज़हार-ए-ख़ौफ़

 


जैसे ही हमारे हाथ में ये पोछे वाला डंडा-बाल्टी आता है, हमारे घर के वातावरण में एक ख़ौफ पसर जाता है,
और फिर बजता है, बैकग्राउंड में स्पॉटीफाई (म्यूजिक ऐप) पर बारम्बार 'सुधा रघुनाथन' की आवाज में-
'भो शम्भू
शिव शम्भू
स्वयं भो,'
ढिढिंग ढिढिंग मृदंगम् की जबरदस्त ऊर्जा से भरपूर स्वर संगीत- लहरी पर एकदम तांडवीमुख मुद्रा लिये पोंछा मारते हुए, हम! सामने कोई आ जाए, उस वक्त तो एक जोड़ी ज्वलंत दृष्टि से- ढाँय...
एकदम्म फायर!!


एक दिन बिचारे हमारे पतिदेव ने 21 वर्ष बाद हमसे कबूला कि सुनो लिली, तुम्हारे इस अवतार को देखकर हम डर के मारे काँप जाते हैं, भीतर तक।

अरे बता नहीं सकते आप लोगों को, के हम केतना खुस हुए ये 'इजहारे- ख़ौफ' सुनकर
सच्ची!
तो बोलो-

भो शम्भो, शिव शम्भो, स्वयंभो

भो शम्भो, शिव शम्भो, स्वयंभो
गङ्गाधर शंकर करुणाकर मामव भवसागर तारक...।

-0-

 4- लिलीबाण नुस्खे

 


 

 

बहुत बड़ा पहाड़- सा लक्ष्य साधने के लिए कभी-कभी मेहनत, लगन, एकाग्रता, तत्परता, जैसे प्रेरणाप्रद, जोशीले, चॉकोलेटी मनोभावों के साथ कुछ 'कड़वे करेले-दूजे नीम चढ़े 'जहर मनोभावों का सम्मिश्रण करना परमावश्यक हो जाता है, जैसे- बेवजह पतिदेव से झगड़ लेना, अपनी गलतियों का दोषारोपण उन पर लगाना, सामान्य सी बातों का बतंगड़ बनाकर तू-तू, मैं-मैं का परिवेश निर्मित करना। इससे होगा यह कि आप तिड़कती -भिड़कती उठेंगी क्रोध के आवेश में सिंक में ढेर लगे बर्तन फटाफट निकल जाएँगे, उबलते गुबार में तन का सारा आलस्य रफूचक्कर हो जाएगा कुछ देर पहले तक फैले घर के सारे कामों को निपटाने का पहाड़- सा लक्ष्य झटपट निपट जाएगा।

रही बात पतिदेव के बिगड़े मिजाज ठीक करने की... एक कप गरम चाय / कॉफी बनाइ
बेवजह झगड़े की वजह बताइए... अपनी गलतियों का दोषारोपण उन पर से हटाइए और तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रण में लाइ

( आवरण एवं सभी रेखाचित्र;सौरभ दास)



Tuesday, September 5, 2023

1368

 1-गुरु/ लिली मित्रा

 


गुरु बिना नहीं तर सके, तम सागर का छोर

कारे आखर जल उठे, उजियारा सब ओर।।

 

धर धीरज धन ज्ञान का, मिलती गुरु की छाँव

ज्यों पीपर के ठाँव में , बसे विहग के गाँव।।

 

ज्ञान मिले ना गुरु बिना, ज्ञान बिना ना ईश

सूने घट सा मन फिरे, बूँद-बूँद की टीस।

-0-

2-योग और श्वास / मंजु मिश्रा


 

सुनो....

अब मैंने भी शुरू कर दिया है योग करना 

रोज सुबह , ‘प्राणायामकरते हुए मैं...

 जब साँसों का योग वियोग करती हूँ,

तो छोड़ती जाती हूँ  वे सारी साँसें,

जो तुमसे अलग होने के बाद महसूस करती थी।

और खींचती जाती हूँ वातावरण से

 वह सारी शुद्ध वायु, जो तुम्हारे सानिध्य की थी ,

अब बनने लगी है मेरी प्राण-चेतना ।

 

भरस्रिकाके माध्यम से झटके से फेंकती जाती हूँ

अंतस् में बसी सारी शिकायतें।

भ्रामरीकरते हुए गुँजा देती हूँ रोम- रोम को

तुम्हारी सुखद स्मृतियों से।

कभी कभी कुंभकलगाकर बैठ जाती हूँ ,

रुक जाती हूँ कुछ पलों में

 कुछ यादों को स्थिर कर लेती हूँ उन पलों में।

अचानक हाथ उठ जाते हैं,

कहते हैं मानो तुम भी तो हो यहीं कहीं इसी भूमंडल में ।

दोनों हाथ जोड़कर झुक जाती हूँ तुमको प्रणामकरने ।

 और फिर शांत निश्चेष्ट- सी पड़ जाती हूँ ‘शवासनमें

 एक बार फिर से अपनी सारी चेतना को तुम्हारी यादों से झंकृत करके

 जीने की एक नई आस लिये ...

अपनी साँसों में आत्मविश्वास और प्राणों में

अपनी और तुम्हारी चेतना का योगकरके।

-0-manjumishra67@gmail.com

-0-

 3-गुरु / रश्मि लहर

  



बदल देते हैं जीवन-मूल्य,

विस्मृत कर देते हैं 

बड़ी से बड़ी भूल।

सुलझा देते हैं  मन का हर उलझा-भाव,

लुप्त हो जाते हैं जीवन के अभाव

जब मेरे पास होते हैं गुरु!

 

भले अदृश्य होते हैं

पर..

प्रतिपल विचारों को सहेजते हैं।

 

त्रुटियों का आकलन

वहम का निराकरण,

मृदुल स्वर से कर जाते हैं।

बनकर मार्गदर्शक..

साथ देते हैं गुरु!

 

निराशा की कल-कल बहने वाली 

नदी को,

हृदय का दम घोंटने वाली 

सुधि को,

छुपा लेते हैं अपने शिख पर,

आशा का अनमोल-अमृत 

बाँट देते हैं गुरु!

 

चुन-चुनकर अवसाद के कंकड़,

सुलभ-सहज कर देते हैं,

भावना का पथ।

 

विचारों के विस्थापित अंश हों या

टीस हो अपूर्ण रिश्तों की।

अनंत इच्छाओं का भार हो या..

असंतुष्टि हो अतृप्त-कामना की।

 

वेदना का प्रत्येक कण चुनकर,

जीवन के श्यामपट पर

संतुष्टि से सजी 

सकारात्मकता को,

छाप -देते हैं गुरु!

 

उनके साथ होने से मिलते हैं 

विस्मयकारी

अतुलनीय-अनुभूति के पल!

 

व्यस्तता के मध्य.. 

विचलित-मन की हर हलचल को,

वैचारिक -अवरोध के अपरिपक्व-संघर्ष को

संवेदित-ज्ञान से परे कर

स्नेह-आलंबन देकर

नव-प्रेरणा की अद्भुत आस होते हैं गुरु!

 

मेरी एकाकी-टूटन में 

शांति-दूत बनकर

सदैव मेरे पास होते हैं गुरु।

मेरे हर प्रश्न का जवाब होते हैं गुरु!

-0-

 4-सावन/ अनिता मंडा

 


बाहें खोल तुम जीवन का स्वागत करोगे

सावन चला आएगा

जीवन को सावन की नज़र से देखना

खुशियों की बारिश पाजेब खनका देगी

 

तुम्हारी छतरी को चूमने 

सावन बूँद- बूँद हो जाएगा

बाहें फैला तुम छतरी को उड़ा देना

बूँदों के आँचल को लपेटे हुए झूमना

धरती की कोख आनंद से भर उठेगी

तुम्हारी हँसी-सा इंद्रधनुष देखो तो

आसमान की मुस्कान है ये

 

तुम रोज़ हँसी के पंख जमा करते जाना

एक दिन उड़ना सीखना

ये सपनीले दिन-रात

सपनों में रख कर

कहीं भूल मत जाना

 

झींगुरों की आवाज़ का साज़ बनाकर

रचना मीठी धुनें

कर्कश शोर से भरी है ये दुनिया

 

कोलाहल के बीच सुकून से सोने के लिए

रंग-बिरंगी गोलियाँ नहीं

सितारों की रुपहली अशर्फियाँ चाहिए

 

कड़वी जड़ी-बूटियों का अर्क हैं नसीहतें

कोई दुष्प्रभाव न करेंगी

बहुत ज़रूरी है

नए के साथ पुराने की जुगलबंदी

आषाढ़ के साथ सावन कितना सहज रहता है।

-0-

5-प्रीति अग्रवाल

1-रोशनी

ऊँची इमारतों ने आज
फिर से मुँह चिढ़ाया है,
दिल की झोपड़ी में मैंने
एक दिया जलाया है।

इस दिए कि रोशनी में
दिख रहा ये साफ है,
रौंदके किसी को उठना
ज़ुल्म ये न माफ़ है।

जो दिख रहा है वो नहीं
सच्चाई के करीब है,
ईमान बेचकर जिया
असल में वो गरीब है।

जो पा रहे, जता रहे
जो खो रहे, छुपा रहे,
मोह, माया, साज़िशें
दलदल में धँसते जा रहे।

कब्र पर खड़ी इमारत
दरअसल है तार तार,
बदनसीबी पर मैं उसकी
खूब रोया ज़ार-ज़ार।

वो शर्मसार देखती
झुकी निगाह, लिये मलाल,
दिया मेरे मन का, रोशन
कर रहा है ये जहान!
-0-

Friday, August 11, 2023

1348-लिली मित्रा की कविताएँ

 लिली मित्रा

 


1- ठोकरों की राह पर

 

 

ठोकरों की राह पर

और चलने दो मुझे

पाँव छिलने दो ज़रा

दर्द मिलने दो मुझे 

 

फ़र्क क्या पड़ता है चोट,

लगी फूल या शूल से

रो पड़ी है या नदी 

लिपट अपने कूल से

घाव सारे भूलकर 

नई चाह बुनने दो मुझे 

 

पाँव छिलने दो ज़रा 

दर्द मिलने दो मुझे... 

 

खटखटाता द्वार विगत के

क्यों रहे मन हर समय

घट गया जो, घटा गया है

कालसंचित कुछ अनय

पाट नूतन खोलकर

नई राह चुनने दो मुझे 

 

पाँव छिलने दो ज़रा

दर्द मिलने दो मुझे.. 

 

कौन जाने क्या छिपा है

आगतों की ओट में?

निर्माण की अट्टालिका

फिर धूसरित विस्फोट में

अवसाद सारे घोलकर

नई आह सुनने दो मुझे 

 

पाँव छिलने दो ज़रा

दर्द मिलने दो मुझे..

-0-

 2-उमस

 

टहलते हुए पार्क के

पाथ वेपर

उतरती शाम को देखा

थोड़ा और ध्यान से

छुटपुट बारिश से 

बुझी नहीं थी तपती जमीन की प्यास

भाप उगल रही थी व

धुंध बनाकर ओढ़े बैठी थी 

अपनी ही उमसती कुनमुनाहट को

पेड़ स्तब्ध थे,

उनमें साहस नहीं था कि 

हिला सकें अपनी एक भी पात,

एक तरफ रह -रहकर  महकते कुटज 

अपनी ही धुन में बेसुध अनचाहे प्रयास करते,

उमस की धुंध महक से जाती है क्या??

नीम की कसैली कड़ुवी महक हावी थी हर बार उनके 

सहृदयी सुगंधित प्रयासों पर

धरती ने खींचकर भर ली थी सारी कड़ुवाहट 

चबा लिये थे नीम उमसती तिलमिलाहट के चलते

विद्रोह के ये शांत स्वर 

शाम की लालिमा पर कालिमा से फैल रहे थे

रात रोई होगी रातभर 

पर मुझे पता है आज भी 

वैसी ही खुद में उफनती 

नीम चबाती

पड़ी रहेगी ... 

-0-

 

3- निकलने तो दीजिए दुर्गा को 

 

क्या शातिर सारा ज़माना?
क्यों डर के साए में ही
सतर्कता का अलख जगाना?
सशक्तीकरण का औजार
थमाते हुए ,
क्या जरूरी है विद्रूपताओं
के घृणित रूप दिखाना?
विश्वास के धरातल  पर
आत्मविश्वास का अंकुर क्यों
नहीं बोते?
अच्छाइयाँ भी हैं... 
बुराइयों के दलदल में ही क्यों भिगोते?
घूँघट से निकल
गरदन उठाकर मुस्कुराती
कलियाँ,
ना समझिए निमत्रंण इसे
नहीं ये पैगाम ए रंगरलियाँ 
समझ इनमें भी है
जरा भरोसा तो रखिए
रेशम- सी हैं तो क्या
गरदन पर इनकी

जकड़ भी परखिए,
जूझने तो दीजिए इन्हें 
परिवेश से 
निकलने तो दीजिए दुर्गा
को निज आवेश में । 

-0-

 

4-देवी



प्रेम विस्तार पा चुका है
इंसान से देवी बनाई जा चुकी हूँ
आराध्या हूँ
मानवीय आचरण अब
निषेध हैं
अभयदान की मुद्रा
और चेहरे पर
करुणा भाव सदा के लिये
चिपकाए रखना है
शी झुकाए आते
जाएँगे श्रद्धालु
अपनी फ़रियाद लिये,
बस सुनते रहना है
अपनी सभी इच्छाएँ,
अभिलाषाएँ, कुंठाएँ,
अभिव्यक्तियाँ,अनुभूतियाँ
प्रतिमा की प्रस्तर
वर्जनाओं में कैद कर लेनी है

सुनो लोगो!
देवी बनना
इतना भी आसान नहीं..

Monday, July 3, 2023

1340-चार रचनाकार

 

1- प्रियंका गुप्ता

माँ होती बेटियाँ

 


बेटियाँ

जब इतनी बड़ी हो जाती हैं

कि माँ की साड़ी पहनकर

इतराने से भी आगे

अब वे माँ की आत्मा ओढ़ती हैं

तब बेटियाँ

बेटियाँ नहीं होती

वे माँ हो जाती हैं

अपनी ही माँ की

जो किसी छोटी बच्ची सी

ज़िद करने लगती हैं

अपनी ही बेटी से

खाने को, पहनने को लेकर

और अक्सर मुँह फुलाकर

जाने किस बात पर

बस लेट जाती हैं करवट बदले

उम्र उन्हें अब 

पेटकुइयाँ नहीं सोने देती 

इसलिए बस करवट लेटी

बिना जवाब दिए

किसी भी सवाल का

सिर्फ खुद जवाब चाहती हैं

ऐसे में

बेटियाँ, बेटियाँ कहाँ रह पाती हैं?

वे तो माँ हो जाती हैं

अपनी ही नन्ही मुन्नी माँ की...

-0-

2-लिली मित्रा

1-अंतहीन शुरूआ

  

 तुम
क्या खत्म कर देना चाहते हो
?

हमारे बीच जो है

वो तो शुरू ही होता है

खत्म होने के बाद

तो ऐसा है

सुनो मेरी बात

आओ पहले जो खत्म होने

वाला है उसे खत्म करें,

ये रात खत्म होती हैं

और उसके बाद

जो दिन शुरू होता है

वो भी खत्म हो जाता है

रोज़ाना यही चक्र

घूमता रहता है

हम इस चक्र के साथ

थोड़े ही घूम -घूमकर

रोज़ एक दिन

और रोज़ एक रात

खत्म करेंगे..

कुछ समझे? या नहीं?

हम तो शुरू होंगे

इस 'खत्मचक्र' के

खत्म होने के बाद

क्योंकि-

उस शुरू का उद्गम शून्य में

होता है,

और मुझे ऐसा लगता है

शून्य में सब कुछ

अंतहीन होता है...

-0-

2-झूठे ख़्वाब

  

देखूँ तुम्हें छूकर

करीब से 'झूठे-ख़्वाबो'!

पलकों पर सजा देते हो

झिलमिलाते अनगिनत

सितारों के मखमली अहसासी-शामियाने

जिनकी क्षणिक चकाचौंध से

भरमा जाता है यह 'मूढमन'

भूलकर चिलचिलाती धूप

जीवन की

झूम जाता है दोलायमान मन

-0-

3-विपश्यना

 

सब धुल कर बह जाना है-

धूप आएगी...

फिर बादल बनेंगे...

फिर बारिशें उतरेंगीं...

ठहरेगा क्या ?

धुलकर बह जाना?

धूप का आना?

या

बादल बन जाना?

 

सवाल किए जाएँ?

या एक जोड़ी आँखें चिपका ली जाएँ,

हर बात का होकर गुज़र जाना देखने के लिए?

या फिर

जज़्ब करने के हुनर को धार दी जाए?

 

पर शायद ठहरेगा कुछ नहीं

सब बह जाएगा

ना आस रखिए ,ना प्यास रखिए

एक जोड़ी आँखें चिपकाए रखिए

 

स्वयं को बहाव संग बहाते हुए,

धूप में सुखाते हुए

बारिश में भीगते हुए

देखते रहिए-

बनते हुए..

बिखरते हुए..

धुलते हुए।

-0-

3-पूनम सैनी

1- गुलाब 

 


कोमल मुलायम पंखुड़ियों की तरह

भीनी सी महक लिये,

आँखों की शान्ति और दिल का सुकून।

वो फूल है;

मगर गुलाब का।

समेटे है चुभन, टीस, दर्द।

जब-जब चाह रखोगे छूने की उसे

उड़ेल देगा तुम्हारे अंदर-

अपनी चुभन, टीस, दर्द

अपने काँटों के स्पर्श से।

छीन लेगा शान्ति,सुकून।

मगर फिर देख लेना तुम

उसकी कोमल,मुलायम,महक वाली 

पंखुड़ियों की तरफ

जो घिरी है उन्हीं काँटों से।

छोड़ चल देना उन्हीं के बीच

या थोड़ी सी सावधानी,थोड़ा प्यार,थोड़ा एतबार,

बना देगा खास

तुम्हारे संग उसे।

सीख लेना तुम भी

काँटों में महकना।

समझना उसकी विवशता 

और विवशता में साहस

फेंक ना देना

हो जाना उसी के तुम;

क्योंकि

फूल है वह, मगर गुलाब का

2

दर्द की बस्ती

हम भी दर्द की बस्ती में मकान रखते है,

यूँ ही थोड़ी मुस्कुराहटों से पहचान रखते है।

नकाबों के कारोबार में हमारा भी निवेश है;

लोग कहते है कि हम प्यारी मुस्कान रखते है।

आमदनी तजुर्बों की और खर्चा प्यार का;

सुख दुःख को हम सदा मेहमान रखते है।

उसके साए में महफूज़ हर शाम,हर सहर,

रहम नज़र सभी पर मेरे भगवान रखते है।

 -0-

4-डॉ.आशा पाण्डेय

 1-आँसू और सागर                                  

 


हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !

         तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।

तुम खारे जल की महाराशि,

        मैं खारे जल की चंद बूंद ।

तुम गरज रहे निज गौरव पर,

        मैं मिटता तट पर आँख मूंद ।

हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !

       तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।

तुम गहरे हो गंभीर जलधि,

      मैं गहरे दुःख से बहता हूँ ।

तुम युग-युग से आप्लावित हो,

     मैं मिटकर जीवित रहता हूँ ।

हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !

     तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।

तेरी लहरों का कालनृत्य,

     लेता है सुख को तुरत छीन ।

मैं हाहाकार मचाकर भी,

    बहता नयनों से मौन धीर ।

हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !

    तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।

तुम उमड़ो तो जीवन ले लो,

      मैं उमड़ूँ तो दुःख हो व्यतीत ।

तुम शीतल लगते हो केवल,

     मैं लेता सबका हृदय जीत ।

हे उदधि,जलधि, हे महाधीर !

    तुम हो अगाध मैं अल्पनीर ।

तुम रत्न भरे रत्नाकर हो,

    बस इसी गर्व से रहे फूल !

समृद्धि नहीं जोड़े दिल को,

    इसको तुम शायद रहे भूल ।

हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !

    तुम हो अगाध, मैं अल्पनीर ।

तुम मोती माणिक देते हो,

     कारण इतना ही ! रहे झूम ।

मैं प्रेम रत्न से ओत-प्रोत,

     लेता हूँ सबके अधर चूम ।

हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !

     तुम हो अगाध मैं अल्पनीर ।

तेरा मेरा निर्माण सहज,

     होता है केवल पानी से ।

पर तुमसे सब भय खाते हैं,

   फिर प्रीति बढ़ाते हैं मुझसे ।

हे उदधि, जलधि, हे महाधीर !

    तुम हो अगाध मैं अल्पनीर ।

-0-

2-योद्धा

 

मैंने फेंक दी है कचरे के डिब्बे में

कुछ शीशियाँ ,

प्लास्टिक के टूटे पुराने डिब्बे ,

पन्नियाँ ,

बच्चों के टूटे  

मेरी तरह मेरे पड़ोसी ने भी फेंक दिया है

टूटे डिब्बों और फूटी शीशियों को

कूड़ेदान में,

भर गया है कूड़ेदान

हमारे मोहल्ले के अटालों से ।

कंधे पर  बोरी लटकाए

चिंदियां बीननेवाला वह व्यक्ति

खुश हो गया है

भरे कूड़ेदान को देखकर

जैसे भगवान् ने दिया है

आज उसे छप्पर फाड़के ।

 

वह फैलाता है अपनी बोरी

और चुन-चुन कर डालता है उसमें

फूटे डिब्बे, टूटे ढक्कन गन्दी पन्नियाँ ।

इस चुनने में उसके हाथ में आती हैं

 सड़ी चीजें

जिसकी गंध से भर जाती है उसकी नाक

पर उसे मलाल नहीं

इन गन्दी चीजों के हाथ में आने का ।

वह टांग लेता है अपने कंधे पर

भरी हुई बोरी

बड़े यत्न से

और चलता है झूमकर

योद्धा की तरह

ख़ुशी फैली है उसके चेहरे पर

अब वह पराजित करेगा

पूरे दो दिन तक

भूख को ।

-0-