पथ के साथी

Thursday, June 20, 2024

1423

 तहजी़ब सुरभि डागर

 


नुमाइश है हजारों पर ना

नुमाइश जिस्म  की ना कीजि

पुरखों ने जो दी सौगात

उस इज्जत की लिहाज़ तो कीजि

हजारों सालों में कमाई दौलत

यूँ ना सरेआम तो कीजि

कहीं बहके कदम,थाम लो

जाम का प्याला अगर हाथ हो तो

याद अपने बाप की पगड़ी को कीजि

बढ़ती नापाक हरकतें

आजादी के नाम खुद को

बर्बाद ना कीजि

पैदा हुई लक्ष्मी बाई, जीजाबाई  हाँ

तहजीब अपने मुल्क की देख लीजिए।

नुमाश है हजारों पर ना

नुमश अपनी ना  कीजिए।

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2-तुम्हारा प्यार रचती हूँ

प्रणति ठाकुर


मन में मैं तुमको हजारों बार रचती हूँ
 

तुम्हारा प्यार रचती हूँ..

जब क्षितिज के छोर से, रश्मियों के डोर से,

भोर मदमाती है आती तितलियों के ताल पर,

हर कली के भाल पर,

स्नेह का कुमकुम लगाती

ज़िन्दगी की आस बनकर,

प्रेम का विश्वास बनकर

जब रवि लिखता है पाती

तब प्रिये मैं भाव बनकर,

भूमि के कण में बिखरकर,

प्रेम का अनुपम अतुल आधार रचती हूँ....

तुम्हारा प्यार रचती हूँ....

 

इन्द्रधनुषी पंख लेकर

 नाचता है जब मयूरा

मोरनी के प्रेम को ही

 बाँचता है जब मयूरा 

जब दृगों से मोर के यूँ

प्रेम का अमृत है झता

देख अकलुष इस सुधा को,

प्रेम की इस सम्पदा को,

मैं भी साथी प्रेम का उद्गार रचती हूँ...

तुम्हारा प्यार रचती हूँ....

 

चाँद की चाहत कुमुदिनी

 के हृदय का द्वार खोले 

चाँदनी का प्यार पाकर

उदधि भी लेता हिलोरें 

सींचकर अमृत सुधाकर

बस निशा में प्यार घोले 

चाँद का उत्सर्ग पाकर,

उस मधुर पल में समाकर,

चाँद सा निर्मल - धवल अभिसार रचती हूँ..

तुम्हारा प्यार रचती हूँ.....

 

तुम हमारे प्रेम जीवन

की मधुर सी कल्पना हो

आँसुओं से जो रची जाती

वो ही  तो अल्पना हो

तुम हमारे प्राण के आधार मन की प्रेरणा हो

हूँ तुम्हारे बिन अधूरी,

पर बनी मीरा तुम्हारी,

वेदनाओं का विकल संसार रचती हूँ...

तुम्हारा प्यार रचती हूँ...

मन में मैं तुमको हजारों बार रचती हूँ 

तुम्हारा प्यार रचती हूँ.....

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Sunday, June 16, 2024

1422-पिता की चिंता

  रश्मि शर्मा

 

हममें बहुत बात नहीं होती थी उन दिनों

जब मैं बड़ी होने लगी

दूरी और बढ़ने लगी हमारे दरमियाँ

जब माँ मेरे सामने

उनकी जुबान बोलने लगी थीं

 

चटख रंग के कपड़े

घुटनों से ऊँची फ्रॉक

बाहर कर दिए गए आलमीरे से

साँझ ढलने के पहले

बाजार, सहेलियाँ और

ठंड के दिनों कॉलेज की अंतिम कक्षा भी

छोड़कर घर लौटना होता था

 

चिढ़कर माँ से कहती -

अँधेरे में कोई खा जाएगा?

क्या पूरी दुनिया में मैं ही एक लड़की हूँ।

पापा कितने बदल गए हैं,

कह रूआँसी-सी हो जाती...

 

बचपन में उनका गोद में दुलराना

साइकिल पर घुमाना

सिनेमा दिखाना, तारों से बतियाना

अब कुछ नहीं, बस यही चाहते वो

हमेशा उनकी आँखों के सामने रहूँ।

 

मेरा झल्लाना समझते

चुपचाप देखते, कुछ न कहते वो

हम सबकी इच्छाओं, जरूरतों और सवालों को ले

बरसों तक माँ सेतु बन पिसती रहीं

 

कई बार लगता-

कुछ कहना चाहते हैं, फिर चुप हो जाते

मगर धीरे - धीरे एक दिन वापस

पुराने वाले पापा बन गए थे वो

खूब दुलराते, पास बुलाते, किस्से सुनाते

माँ से कहते – कितनी समझदार बिटिया मिली है!

 

यह तो उनके जाने के बाद माँ ने बताया -

थी तेरी कच्ची उमर और

गलियों में मँडराते थे मुहल्ले के शोहदे

कैसे कहते तुझसे कि सुंदर लड़की के पिता को

क्या - क्या डर सताता है...

 

बहुत कचोट हुई थी सुनकर

कि पिता के रहते उनको समझ नहीं पाई

आँखें छलछला आती हैं

जब मेरी बढ़ती हुई बेटियाँ करती हैं शिकायत

मम्मी, देखो न ! कितने बदल गए हैं पापा आजकल !

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Friday, June 7, 2024

1421

  रश्मि विभा त्रिपाठी

1
कैसा दुनिया में हुआ
, लागू यह कानून।
करता अपना ख़ून ही, अब अपनों का ख़ून।।
2
घर की हालत क्या कहें, कैसे हैं परिवार।
हर आँगन में उठ गई, अब ऊँची दीवार।।
3
प्यार- मुहब्बत है कहाँ, किधर दिलों का मेल।
दुनिया में अब चल रहा, बस पैसे का खेल।।
4
आज गले में झूठ केपहनाते सब हार।
सच बेचारा हर तरफ, झेल रहा बस मार।।
5
आज ज़माने में चली,  कैसी सुंदर रीत।
बहरे बैठे सुन रहे,  सबके मन का गीत।।
6
आज कपट की राह मेंबिछे हुए हैं फूल।
सच्चाई अब तो हुईबस पाँवों की धूल।।
7
मीरा- मोहन- सा कहाँ, आज रहा है प्यार।
कलियुग में तो बन गया, अब यह इक व्यापार।।
8
घटना हर अख़बार की,  ये ही करती सिद्ध।
आज आदमी बन गया, सचमुच में इक गिद्ध।।
9
अपने घर- संसार में, लग ना जाए आग।
दो पैरों वाले बहुतबाहर घूमें नाग।।
10
गर्व न ऐसा तुम करोये ही कहता ईश।
रावण ने जिस गर्व से, कटा लिये दस शीश।।
11
जाने किसने कर दियालागू अध्यादेश।
जंगल के सब भेड़ियो, धर लो मानव- वेश।।
12
घर की छत पे भी कभी, नहीं बोलता काग।
पहले- सा अब ना बचा,  सम्बन्धों में राग।।
13
कहीं किताबों में छुपे, मिलते नहीं गुलाब।
चाहत राँझा- हीर की, अब तो है बस ख़्वाब।।
14
मुरझाए, सूखे पड़े, सभी प्यार के फूल।
मन के जंगल में उगे, जबसे घने बबूल।।
15
नाहक सच्चे प्रेम की, तुम करते हो आस।
इस जग में अब रह गया, केवल भोग- विलास।
16
पक्ष झूठ का नहीं लिया, कह दी सच्ची बात।
फिर उसको संसार नेबना दिया सुकरात।।
17
खून- पसीना एक कर, पाला राजा- पूत।
बड़ा हुआ तो बन गया, हाय वही यमदूत।।
18
छली अधम औ हैं यहाँ, डाकू, लम्पट, चोर।
इस जीवन की सौंप दें, कहिए किसको डोर।।
19
पल- पल आज बदल रहा, जाने कितने रंग।
मानव को यूँ देखकरगिरगिट भी है दंग।।
20
कितना अच्छा देख लो, दुनिया का यह पाठ।
हमको लोग पढ़ा रहेसोलह दूनी आठ।।
21
लक्ष्मण रेखा द्वार पे, इसीलिए दी खींच।
छद्मवेश ले फिर रहेरावण औ मारीच।।
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