पथ के साथी

Tuesday, April 7, 2015

काव्य-गंगा




1-मेरे नए दोहे

डासुधेश
1
काम धाम औ नाम संग , खूब कमाया दा
पर इतिहासों में मिला , नहीं तुम्हारा नाम ।
1
नाच कूदकर हर जगह खूब किया है का
बहते पानी पर लिखा , मिला तुम्हारा नाम ।
3
झूठमूठ कोई कहे , आप बनें अध्यक्ष
क़ब्र तोड़ कर प्रकटते , महामहिम प्रत्यक्ष ।
4
चाँद चाहिये दिवस में ,इतनी ऊँची चाह
चमचे भी तैयार हैं, करें वाह जी वाह ।
5
भैया यह जनतन्त्र है, धनवानों का खेल
तन्त्र शेष पर जन कहाँ, उसकी छूटी रेल ।
6
अपना ही तो राज है, चले गये अंग्रेज़
ये देसी अंग्रेज़ पर, उन से निकले तेज़ ।
7
नौकर शाही मस्त है , अंग्रेज़ी में बोल
चाहे कितना पीट ले ,तू हिन्दी का ढोल ।
8
जिनके पेट भरे हुए ,उन्हें चाहिये और
ख़ाली पेटों को मगर ,कहीं नहीं है ठौर ।
9
खा-पीकर न डकारते, ऐसे भोजन भट्ट
चारा,चीनी, तेल सब, कर जाते है चट्ट ।
10
तन्त्र तुम्हारे पास है, माउथ पीस है पास
इसीलिए वह रात- दिन ,करता है बकवास ।
11
सत्य हमारे पास है, रखलें अपना झूठ
मेरे कर तलवार है, तू रख ले यह मूठ ।
12
काले धन के घड़े में, इक दिन होगा छेद
कोई दवा न चलेगी ,काला होय  सफ़ेद ।

डा सुधेश -314 सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका, सैक्टर 10
नई दिल्ली-110075
फ़ोन 09350974120
ईमेल drsudhesh@gmailcom
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2- डॉ.कविता भट्ट

तेरे नैनो की गंगा में
तम था,  विरह था, विवशताएँ थी,
सोचा था जीवन अमावस हुआ
बरसों से मन में रखा था छिपाकर,
अब जा के कहने का साहस हुआ
तेरे नैनो की गंगा मे डुबकी लगाकर,
काया कंचन हुई मन पारस हुआ
हम पर थे ताने- कि भिक्षुक हैं हम,
तेरे दर पर झुके जीवन राजस हुआ
कुछ बूँदे जो निर्मल प्रेम की पा ली,
अभिसिंचित हुए जेठ पावस हुआ
क्यों कुम्भ जायें, क्यों गंगा नहाएँ,
आज सवेरे ही तट से पग वापस हुआ
पतित पावनी तो भीतर बहे है,
अद्भुत प्रेम गोते, आदर्श-मानस हुआ
मुझे डूबना है नहीं तैरना है,
अब पार जाने में भारी आलस हुआ
सुनते थे, प्रेम है वासना तनों की ,
मेरा तन-मन तो प्रेम में तापस हुआ
तेरा नाम जपते रहे हम निरंतर,
तू शंकर मेरा, घर पावन-बनारस हुआ

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 दर्शनशास्त्र विभाग,हे 0न0 ब0 गढ़वाल विश्वविद्यालय
श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड