रश्मि 'लहर'
प्रिय!
तुम्हारी प्रतीक्षा में
जला देती हूँ कुछ दीप
अनायास
तुलसी के आसपास!
तुलसी की
सुरभि से लिपटा
तुम्हारा भाव!
पत्तियों की ओट से झाँकती
जलती लौ
हर लेती है मेरा हर अभाव!
मेरे शब्दों का पल्लव
स्वप्कोष का कलरव
और
बस यूँ ही तुम्हारे बिना..
मेरा बीतना
सिखा देता है
अपने प्रेम के दरख्त को
सजल आवेग से सींचना!
जीत लेती है मुझे तुम्हारे नेह की
अकल्पित दृष्टि!
तुम्हारे निश्छल वियोग की अभिव्यक्ति!
छलछला पड़ती है
मेरे साथ-साथ,
तुम्हारी सुरभित स्मृतियों से ढकी
संपूर्ण सृष्टि!