-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पुकारोगे जो
मैं ठहर जाऊँगा
तुम्हें छोड़
मैं
भला कहाँ जाऊँगा
तुम्हारे
लिए
पलक -पाँवड़े मैं
बिछाता रहा
गुनगुनाता रहा
आज भी वहीं
मैं नज़र आऊँगा
दूर हो तुम
दिल हारना नहीं
दूरियाँ नहीं
दूर करेंगी हमें
सिन्धु या
गिरि
राह रोकते नहीं
चलते रहो
कभी टोकते नहीं
रोक न सका
पखेरू की उड़ान
कोई शिखर
सागर की लहरें
थपेड़े बनीं
ज़िन्दगी में इनसे
हमारी ठनी
इन सबको चीर
पार जाऊँगा ।
ये न समझो कभी
हार जाऊँगा
किसी भी मोड़ पर
एक दिन मैं
तुम्हें पा ही जाऊँगा
कहता मन -
मेरे द्वार
पे जब
आओगे तुम
दस्तक नहीं कभी
देनी पड़ेगी
कदमों की आहट
दे देगी पता
रात हो या प्रात हो
मेरे द्वार
को
सदा खुला पाओगे
गले लग जाओगे ।
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(14 सितम्बर, 2012)