पथ के साथी

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Friday, November 2, 2018

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1-कर्ण
श्वेता राय
आज युद्ध की इस बेला में, मुझको सत्य बताते हो।
पांडव मेरे रक्त सहोदर, कैसा भ्रम फैलाते हो।
हे केशव! यदि ये सच है तो भी मुझको स्वीकार नहीं।
समर भूमि से पीछे हटने का मुझको अधिकार नहीं।
अंधड़ आंधी में तरु शाखा से विगलित मैं पर्ण बना।
हो कठोर, सुन सूत पुत्र मैं, आज यहाँ ये कर्ण बना।

कैसे कह दूँ कुंती को माँ, राधा को मैं माँ जाना।
बचपन से ही प्रेमिल उसका, आँचल मैंने पहचाना।
पाप समझ कुंती ने त्यागा, राधा ने स्वीकार किया।
मेरे हर आँसू को बढ़कर, उसने अंगीकार किया।
जग के कटु वचनों को सुनकर, सूर्य रश्मि सम स्वर्ण बना।
हो कठोर सुन सूत पुत्र मैं आज यहाँ ये कर्ण बना।

हे कृष्णा! अब ये बतलाएं, उस दिन क्यों वो मौन रहीं।
कृपाचार्य जब रोके तब वो, आ मुझको क्यों नहीं गहीं।
उसदिन दुर्योधन ने मुझको, मान मेरा लौटाया था।
हो हक था मेरा उसदिन, मैंने उस से पाया था।
अंगदेश को पाकर उसदिन, सम्मानित मैं वर्ण बना।
हो कठोर सुन सूत पुत्र मैं आज यहाँ ये कर्ण बना।

कल कुंती आ मुझसे कहतीं, दुर्योधन को छोड़ दो।
पांच पांडवों के बन भ्राता, समर दिशा तुम मोड़ दो।
हे गिरधारी! क्या संभव ये, वार पीठ पर मैं कर दूँ।
सम्मानित इक रिश्ते पर मैं दाग पंक से मैं मढ़ दूँ ।
मीत मिताई में बोलो कब कोई कहीं विवर्ण बना।
हो कठोर सुन सूत पुत्र मैं,आज यहाँ ये कर्ण बना।

हे वनवारी! सत की महिमा, युद्ध अंत का तुम जानो।
क्या होगा अगले क्षण में ये भली भांति तुम पहचानो।
यदि कल समरांगण में मेरा वध संभव हो पाता है।
या अर्जुन का सिर में सम्मुख आकर गिर जाता है।
होंगें पांडव पांच सदा ही,मत इसको अब अर्ण बना।
हो कठोर सुन सूत पुत्र मैं आज यहाँ ये कर्ण बना।

सुन बातें सब कर्ण कृष्ण नत अपना शीश झुकाते हैं।
कहते जग में तुमसा कोई, मित्र कहाँ सब पाते हैं।
दुर्योधन के मान से बढ़कर, तुमने जो सम्मान किया।
मानवता को अभयदान दे, स्वर्णिम एक विहान दिया।
मर्यादित इस भाव को सुन मैं स्वंय यहाँ उत्कर्ण बना।
अब जाना मैं पहचाना, कैसे ये निर्भय कर्ण बना।
-०-

2-दोहे
अनिता  मंडा
1.
होठों पर हैं चुप्पियाँ, भीतर कितना शोर।
सूरज ढूँढे खाइयाँ, आये कैसे भोर।।
2.
परछाई हैं  रात की, बुझी -बुझी सी भोर।
उजियारे के भेष में, अँधियारे का चोर।।
3.
जुगनू ढूँढे भोर में, पतझड़ में भी फूल।
कुदरत के सब क़ायदे, लोग गए हैं भूल।।
4.
प्रतिलिपियाँ सब नेह की , दीमक ने ली चाट।
पांडुलिपि धरे बैर की, बेच रहे हैं हाट।।
5.
सूनी घर की ड्योढियाँ, चुप हैं मंगल- गीत।
जाने किस पाताल में, शरणागत है प्रीत।।
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Saturday, April 8, 2017

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 1- श्वेता राय

अप्रैल 1857

सत्तावन था वर्ष सदी का,धरती ने ली अँगड़ाई।

अंग्रेजों की चाल समझकर, जगी यहाँ की तरुणाई।

।कहते थे विद्रोह जिसे वो, आज़ादी की थी ज्वाला।

जिसकी लपटों ने गोरों की, गद्दी को झुलसा डाला।।

प्रथम राह वो आज़ादी की, बांध कफ़न सब निकल पड़े।

उत्तर भारत के सब वासी, अंग्रेजों से खूब लड़े।।

अंग अंग में जोश भरा था, जन जन में तूफ़ान भरा।

धरती हो आज़ाद हमारी, मन में ये अरमान भरा।।

बलिया के थे वीर सिपाही,मंगल जिनका नाम था।

ईस्ट इण्डिया की सेना में, लड़ना जिनका काम था।।

पहला शंख फूंक कर जिसने, महायज्ञ प्रारम्भ किया।

समिधा में जीवन को अपने, बढ़कर जिसने दान दिया।।

मेरठ की इस दीप शिखा से, जगमग सारा देश हुआ।

गोरे शासक भी थे सहमे, जोश भरा परिवेश हुआ।।

बलिवेदी पर चढ़ कर मंगल, द्वार मुक्ति का खोल गए।

राष्ट्रप्रेम है धर्म हमारा, हँसकर सबसे बोल गए।।

उनकी अर्थी पर ही अपने,सपनो का संसार बसा।

अंग्रेजो भारत तुम छोडो, कहने का हुंकार बसा।।

मंगलपांडे को मन में रख, दुर्गम पथ पर सभी बढ़ो।

शीश झुका बलिदान दिवस पर, नवल नित्य प्रतिमान गढ़ो।।

【मंगल पांडे की स्मृतियों को नमन】




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2-चिलमन- अनिता मण्डा


चिलमन-अनिता मण्डा
यमुना पर पतवार चलाते
मत्स्यगंधा के दो हाथ
भूल गए थे क्या
प्रतिरोध की भाषा
या मन में अतिक्रमण 
कर दिया था लोभ ने
फूलों -सा महकने की इच्छा ने
छोड़ दी थी जग की मर्यादा
कौन-सा रंग अधिक गहरा था
महत्वाकांक्षाविवशताआशंका
एक मायावी द्वीप
एक कोहरे की चिलमन
और जन्म हुआ
अमर महाकाव्य के
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3-प्रियंका गुप्ता

 चले आना

कभी कोई नज़्म
पुकारे तुम्हें
तो चले आना
नज़्मों के पाँव नहीं होते
पर रूह होती है उनमें भी
ऐसा न हो
कि सुन के भी अनसुना कर दो तुम
रूह बर्दाश्त नहीं करती अनसुना किया जाना
बसबता रही
ताकि तुम चैन से सो सको...।
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Thursday, March 23, 2017

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भगत सिंह- श्वेता राय

मेघ बन कर छा गये जो, वक्त के अंगार पे।
रख दिए थे शीश अपने, मौत की तलवार पे।।
वायु शीतल,तज गये जो, लू -थपेड़ो में घिरे।
आज भी नव चेतना बन, वो नज़र मैं हैं तिरे।।
मुक्ति से था प्रेम उनको, बेड़ियाँ चुभती रहीं।
चाल उनकी देख सदियाँ, हैं यहाँ झुकती रहीं।।
मृत्यु से अभिसार उनका, लोभ जीवन तज गया।
आज भी जो गीत बनकर, हर अधर पर सज गया।।
तेज उनका था अनोखा, मुक्ति जीवन सार था।
इस धरा से उस गगन तक, गूँजता हुंकार था।।
छू सका कोई कहाँ पर, चढ़ गए जो वो शिखर।
आज भी इतिहास में वो, बन चमकते हैं प्रखर।।
आज हम आज़ाद फिरते, उस लहू की धार से।
चूमते थे जो धरा को, माँ समझ कर प्यार से।।
क्या करूँ ,कैसे करूँ मैं, छू सकूँ उनके चरण।
देश हित बढ़ कर हृदय से, मृत्यु का कर लूँ वरण।।
कर रही उनको नमन...
खिल रहा उनसे चमन..
छू सकूँ उनके चरण..
-0- शहीद भगत सिंह को नमन
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जब तक जल है  -गिरीश पंकज

जब तक जल है
सब हलचल है
बिन जल के तो
सब निष्फल है
जल वो ही जल
जो निर्मल है
जल बिन सूना
पल-प्रतिपल है
जल है तो फिर
भीतर बल है
ओम चैतन्यशर्मा( सत्या शर्मा जी के पुत्र)
नदी बचे तो
सबका कल है
बूँद -बूँद से
जल का हल है
जल से पंकज
खिला कमल है
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