पथ के साथी

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Monday, September 18, 2023

1372

 

1-तुम्हें पता है / अनीता सैनी 'दीप्ति'

 


तुम्हें पता है? ये जो तारे हैं ना  

ये अंबर की

हथेली की लकीरों पर उगे 

चेतना के वृक्ष के फूल हैं

झरते फूलों का 

सात्विक रूप है  काया।

 

प्रकृति के

गर्भ में अठखेलियाँ करते भाव 

जन्म नहीं लेते, गर्भ बदलते हैं

जैसे गर्भ बदलता है प्राणी 

सागर में तिरते चाँद का प्रतिबिंब

बुलावा भेजता है इन्हें।

 

तभी, तुम्हें बार-बार कहती हूँ 

निर्विचार आत्मा पर जीत हासिल नहीं की जाती 

उसे पढ़ा जाता है

जैसे-

पढ़ती हैं मछलियाँ चाँद को

और चाँद पढ़ता है, लहरों को।

-0-

2-बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं

-प्रणति ठाकुर

 


 

हूँ तुम्हारी हमनफ़स, हमराज़ हूँ मैं,

अनकही और अनसुनी आवाज़ हूँ मैं,

ख़ून -ए- दिल से खुद -ब-खुद शादाब हूँ मैं

बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं ।

 

हूँ सरापा नज़्म -ए-रुसवाई मैं तो,

हूँ ख़यालों में क़फ़स तन्हाई मैं तो,

इन्तहा -ए-हिज़्र का आदाब हूँ मैं 

बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं

 

रोक ले मुझको कि मैं गिरने न पाऊँ,

गिर हक़ीक़ी हर्फ़ से मिलने न पाऊँ,

ख्वाहिशों के चश्म का बस आब हूँ मैं

बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं

 

रख मुझे, मैं मुफ्लिसी -ए-इश्क की ज़िन्दा इबारत,

चंद रातों में न बुझ जाऊँ,हूँ जुगनू की हरारत,

आसमाँ तू है नहीं फिर कैसे आफ़ताब हूँ मैं

 बंद आँखों से छलकता ख़्वाब हूँ मैं

-0-

Thursday, September 7, 2023

1369

 1-आया नहीं बसन्त

डॉ. उपमा शर्मा  

  



साँसों के आरोह-अवरोह

चलते रहे दिग्दिगन्त। 

कितने मौसम बीत ग हैं। 

फिर भी आया नहीं बसन्त। 

 

पेड़ों पर पतझड़ का मौसम

रुक गया आकर क्यों इस बार

कोमल कोंपलें देखने को

थक गईं अँखियाँ पंथ निहार

स्वागत में अब इस आगत के

लिख डाले मैंने गीत अनन्त

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

 

लिपट तितलियाँ ठूँठों से ही

करती रहती बस मनुहार। 

बसंत बिना सूने हैं मौसम

पुष्प बिना है  सूना संसार। 

अगन धरा पर बरस रही है

सूरज बन गया आज महन्त

 

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

 

रूठ ग बागों से भँवरे

डाली कितनी हुईं  उदास

फूलों के मौसम में पतझड़

मिलने की टूटी है आस

अब पतझड़ नहीं जाने वाला

रुक गया हो जैसे जीवन पर्यन्त

कितने मौसम बीत ग हैं

फिर भी आया नहीं बसन्त

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चूक / अनीता सैनी 'दीप्ति'

 


प्रिय ने

बादलों पर घोर अविश्वास जताते हुए

खिन्न हृदय से चिट्ठी चाँद को सुपुर्द की

मैंने कहा- यक्ष को पीड़ा होगी

उसने कहा-

बादल भटक जाते हैं

तब यही कोई

रात का अंतिम पहर रहा होगा

चाँद दरीचे पर उतरा ही था

तारों ने आँगन की बत्ती बुझा रखी थी

रात्रि गहरा काला ग़ुबार लिये खड़ी थी

जैसे आषाढ़ बरसने को बेसब्र हो

और कह रहा हो-

'नैना मोरे तरस गए आजा बलम परदेशी।'

ऊँघते इंतज़ार की पलकें झपकीं

मेरी चेतना चिट्ठी पढ़ने से चूक गई

चुकने पर उठी गहरी टीस

उस दिन जीवन ने नमक के स्वाद का

पहला निवाला चखा था।

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Friday, August 4, 2023

1344-संताप

अनीता सैनी 'दीप्ति'

 




उन्होंने कहा-

उन्हें दिखता है, वे देख सकते हैं

आँखें हैं उनके पास।”

होने के

संतोष भाव से उठा गुमान

उन सभी के पास था 

वे अपनी बनाई व्यवस्था के प्रति

सजगता के सूत कात  रहे थे

सुःख के लिए किए कृत्य को

वे अधिकार की श्रेणी में रखते  

उनमें अधिकार की प्रबल भावना थी 

 नहीं सुहाता उन्हें!

वल्लरियों का स्वेच्छाचारी विस्तार

वे इन्हें जंगल कहते 

उनमें समय-समय पर

काट-छाँट की प्रवृत्ति का अंकुर

फूटता रहता 

वे नासमझी की  हद से 

पार उतर जाते, जब वे कहते-

उसके पास भाषा है।”

मैं मौन था, भाषा से अनभिज्ञ नहीं 

वे शब्दों के व्यापारी थे, मैं नहीं

मुझे नहीं दिखता!

वह सब जो इन्हें दिखा देता  

नहीं दिखने के पैदा हुए भाव से 

मैं पीड़ा में था, परीक्षित  मौन 

यह वाकया- बैल ने गाय से कहा।

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Monday, July 24, 2023

1349-तीन कविताएँ

 

1-परदों से झाँकती ज़िदगी

इन्दु कृति

 


परदों से झाँकती ज़िदगी

अनंत संभावनाओं की तलाश में

जैसे तैयार हो रही हो

एक सफल उड़ान भरने को...

 

एक परितृप्त श्वास से भरपूर

और नवीन सामर्थ्य से परिपूर्ण

ये उठी है नया पराक्रम लेकर

नवजीवन के प्रारम्भ का विस्तार छूने।

 

परिधियों से बाहर आने की आतुरता

आसक्ति नहीं, प्रतिलब्धता

समीक्षा नहीं,  अनंतता

विस्तारित व्योम को बस छू लेने की लालसा.....

 

परदों से झाँकती ज़िन्दगी।।

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2-हाँ! यह वही सावन है

अनीता सैनी 'दीप्ति'

 

ज़ुल्म !

पवन के अल्हड़ झोंकों का

कि घटाएँ फिर उमड़ आयीं

चित्त ने दी चिंगारी

एहसास फिर सुलग आए

भरी बरसात में जला

हाँ! यह वही सावन  है।

 

धुँआ उठा न धधका तन

सपनों का जौहर बेशुमार जला

बेचैनियों में सिमटा बेसुध

पल-पल अलाव-सा जला

हाँ! यह वही सावन है।

 

बुझा-सा

ना-उम्मीदी  में जला

डगमगा रहे क़दम

फिर ख़ामोशी से चला

जीवन के उस पड़ाव पर

बरसती बूँदों ने सहलाया

हाँ! यह वही सावन है।

 

पलकों को भिगो 

मुस्कुराहट के चिलमन  में  उलझ   

दिल के चमन को बंजर कर गया 

भरी  महफ़िल में

अरमानों संग जला

हाँ!यह वही सावन है।

 

बेरहम भाग्य को भी न आया रहम

रूह-सा  रूह  को  तरसता मन

एक अरसे तक सुलगा

फिर भी न हुआ कम

पेड़ की टहनियों से छन-छनकर जला

हाँ! यह वही सावन है।

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रोकना जरूरी है

 -रेनू सिंह जादौन


 

 रोकना ज़रूरीहै पीढ़ियों के बीच खाई को।

हमारी सभ्यता की हो रही हमसे विदाई को।।

 

परख है आपको गुण और अवगुण की बहुत लेकिन,

सुना है आपने देखा नहीं अपनी बुराई को।

 

यहीं सब मोह माया छोड़ खाली हाथ जाना है,

बढाओ रोज तुम थोड़ा सा' कर्मों की कमाई को।

 

भले ही बंद हैं खिड़की घरों के बंद दरवाजे,

बताते शोर क्यों लेकिन गरीबों की दुहाई को।

 

जरा मीठी रखो बोली रखो व्यवहार भी मीठा,

सुई होती नहीं कोई है' रिश्तों की सिलाई को।

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Tuesday, June 20, 2023

1331

 1-सुनो बादलो !

सुरभि डागर 

     

सुनो बादल! कहाँ हो तुम

सूरज‌ के तेज से 

व्याकुल हूँ

उभरने लगीं हैं 

दरारें हृदय में,

क्षीण होती जा रही है 

हरियाली, पीले पड़ रहे हैं

वृक्षों के पात, आषाढ़ की 

गर्म दोपहरी में पाखी भी

तिलमिला उठते हैं।

उम्मीद से आसमान की ओर

देखता है किसान और 

हताश हो जाता था ।

आम की बगिया में

कोयल, मोर, पपीहा का राग भी

फीका हो चला ।

तेज़ लू में राहगीर भी 

झुलस उठता है

सुनो‌ बादलो! .....

बरस जाओ झमाझम,

जो‌ शान्त हो मेरा चित

निकल‌ आएँ नई कोपलें

हृदय में उग आएँ नई हरी-हरी

नरम मुलायम घास,

नाच उठे मोर ,पपीहा सब

खिल उठे मुख किसान, राहगीरों का ।

निकल‌ आएँ बच्चे घरों से

कागज की नाव लेकर ,

छ्लें उठें बूँदों की भाँति,

खिल उठे चारों ओर हरियाली 

अब बरस भी जाओ बादलो!

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2-मरुस्थल सरीखी आँखों में

 अनीता सैनी 'दीप्ति'

 

उसने कहा-

मरुस्थल सरीखी आँखों में

मृगमरीचिका-सा भ्रमजाल होता है,

क्योंकि बहुत पहले

मरुस्थल, मरुस्थल नहीं थे,

वहाँ भी पानी के दरिया,

जंगल हुआ करते थे

गिलहरियाँ ही नहीं उसमें

गौरैया के भी नीड़ हुआ करते थे

हवा के रुख़ ने

मरुस्थल बना दिया

 

अब

कुछ पल टहलने आए बादल

कुलाँचें भरते हैं

अबोध छौने की तरह

पढ़ते हैं मरुस्थल को

बादलों को पढ़ना आता है

जैसे विरहिणी पढ़ती है

उम्रभर एक ही प्रेम-पत्र बार-बार

 

वैसे ही

पढ़ा जाता है मरुस्थल को

मरुस्थल होना

नदी होने जितना सरल नहीं होता

सहज नहीं होता इंतज़ार में आँखें टाँना

इच्छाओं के

एक-एक पत्ते को झरते देखना;

बंजरपन किसी को नहीं सुहाता

मरुस्थल को भी नहीं

वहाँ दरारें होती हैं

एक नदी के विलुप्त होने की।

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