पथ के साथी

Friday, July 12, 2013

मेरा पहाड़ी गाँव !

प्रिय साथियो ! सुभाष लखेड़ा जी के हाइकु आप कई महीने से पढ़ रहे हैं ।'मेरा पहाड़ी गाँव' कविता पढ़कर सम्भव है हम भी अपने गाँव के बारे में सोचने लगें ।लगता है अब हमारे गाँव हमारे लिए केवल सपना बनने की राह में हैं। -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

     
सुभाष लखेड़ा 
मानता हूँ मैं  प्रगति की बात
मेरे इस देश में यह जरूर हुई है ;
लेकिन मेरा गाँव  
इस प्रगति की वजह से वीरान होता गया
वहाँ  रहने वाला आदमी बूढ़ा हो गया  
वहाँ  का बच्चा वहाँ  नहीं
किसी नगर - महानगर में समय से पहले जवान हो गया।
मैं मानता हूँ की देश - दुनिया में खेती में बदलाव आया है 
किन्तु मेरे गाँव  में जगह - जगह " जख्या *" उग आया है  
बंजर होती गयीं माथि और मुड़ी सार** 
जिनमें कभी लहलहाती थी फसलें  
मेरे ज़माने के बच्चे गाया करते थे गीत 
और नज़र आतीं थी भेड़ - बकरियों के रेवड़

मैं यह भी जानता हूँ कि देश - दुनिया में औद्योगिक क्रांति हुई है 
लेकिन मेरे गाँव  में तो अब नहीं रहे वे टम्टे, लुहार, कोली और सुनार 
जो बनाते थे बर्तनखेती के लिए लौह औजार 
ओढ़ने के लिए ऊनी कम्बल और दुलहनों के लिए जेवरात 
वे न जाने कहाँ  चले गए,
तरसता है मेरा मन उन्हें देखने के लिए।
मुझे यह  पता है वहाँ  अब अपनी सरकार है 
मेरे गाँव में अब पुलिस चौकी है
जिसमें एक सिपाही सोया रहता है 
एक स्कूल है जिसमें अध्यापक कभी -कभार आता है 
दस किलोमीटर दूर एक अस्पताल है ; जहाँ  डाक्टर नहीं मिलता है
कुछ बूढ़े मर्द,कुछ महिलाएँ और कुछ बच्चे हैं 
जो सरकारी सस्ता आटा - चावल खाते हैं
दिन काटते हैं, काम करने के बजाय जूँ मारते हैं। 

दरअसल,  मेरा गाँव  बूढ़ा हो गया है 
उसकी मौत की खबर आएगी 
यह तो मैं जानता हूँ ;
लेकिन कब ?
इतना नहीं जानता
दरअसल, मैं भी बूढ़ा हो चला हूँ 
मैं कैसे बता सकता हूँ - पहले कौन मरेगा ?
मैं या मेरा गाँव  ? खैर, खबर मेरी मिले या मेरे गाँव  की 
इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा 
इस देश को न मेरी जरूरत है न मेरे गाँव  की !
-0-
जख्या* = एक जंगली पौधा जिसका घर के आसपास 
                                उगना अशुभ माना जाता है। 

माथि और मुड़ी सार** = गाँव से ऊपर और नीचे के खेत।