1- जंगल
मंजूषा
मन
जंगल- सी घनी हैं तुम्हारी यादें
ऊँचे -ऊँचे पड़े सटकर खड़े है
बीच से गुजरती हवा
सरसराते पत्तों का शोर
सुकून देती शीतलता तुम्हारा स्पर्श...
पाँवों से उलझतीं लताएँ
तुम रोक रहे हो जाने से,
झाड़ियों में उलझता दामन
तुमने पकड़ लीं है बाहें....
पपीहे की तान,
कोयल का गीत,
कानों को छूकर निकलती हवा
सीटियाँ- सी बजाती है
यूँ कि जैसे तुम गा रहे हो गीत
या धीरे से कानों में कह रहे हो
मन की बात...
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Project
Officer
Ambuja
Cement Foundation,Rawan (chhattisgarh)
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2-तुम ही तो हो !!
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पर्वत के उच्च शिखर से उतर
एक नदी स्नेह सी बहने लगी।
हर आँगन में हो हरियाली,वह कहने लगी।
आँखों
में था दिपदिपाता विश्वास
अधरों पर भोर –सा मधुरिम हास
सीने में ज्वालामुखी –सा दबा भावों का सौरभ
लिपटा
तन के आस पास,
मन की सीमाओं के पार तक।
माथे पर स्नेहसिक्त उजाला
आलोकित हो उठे
मन के सारे लोक
‘कौन
है वह ?’
‘तुम
ही तो हो !!’
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