पथ के साथी

Thursday, April 21, 2022

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  1-अनुपमा त्रिपाठी सुकृति’ की कविताएँ

1

शब्द अपने कितने स्वरूपों में


अवतरित ,

खटखटाते हैं

मन चेतन- द्वार ,

लिये निष्ठा अपार ,

झीरी से फिर चली आती है

धरा के प्राचीर पर

रक्तिम .....

पलाश वन- सी ....

रश्मि  की कतार

नवल वर्ष  प्रबल  विश्वास

सजग  है मन

रचने नैसर्गिक उल्लास,

हँसते मुसकुराते से

 भीत्ति चित्र ,

प्रभात का स्वर्णिम  उत्कर्ष,

शबनमी वर्णिका का स्पर्श ,

एक विस्तृत आकाश का विस्तार ,

बाहें पसार ...

चल मन उड़ चल पंख पसार ....!!

-0-

2

उमड़ते हुए भावों की वीथी से ,

चुनते हुए शब्द की प्रतीति से ,

रचना से रचयिता तक ,

खिलते कुसुमों से अनुराग लिये ,

पल- पल बढ़ता है मन ,

गुनते हुए क्षण क्षण ,

अभिनव  आरोहण ,

बुनते हुए रंग भरे कात से ,

रंग भरा ,

उमंग -भरा जीवन ....!!

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3

विजन निशा की व्याकुल भटकन ,

थिका का ऐसा जीवन,

मलयानिल का वेग सहनकर ,

मुख पर कुंतल करें आलिंगन ,

बढ़ती जाती पथ पर अपने ,

 

उषा का स्वागत करता मन

रात्रि की निस्तब्धता में

कुमुदिनी कलिका का किलक बसेरा

प्रातः के ललाम आलोक में

उर सरोज- सा खिलता सवेरा !!

री पथकिनी तू रुक मत

नित  प्रात चलती चल ,

धरा पर सूर्य की आभा से

मचलती चल !!

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4

आज भी .. ...

आज भी सूर्यांश की ऊष्मा  ने

अभिनव मन के कपाट खोले ,

देकर ओजस्विता

सूरज किरण चहूँ दिस  ,

रस अमृत घोले ..!!

आज भी चढ़ती धूप  सुनहरी ,

भेद जिया के खोले ,

नीम की डार पर आज भी

चहकती है गौरैया ,

आज भी साँझ की पातियाँ

लाई है संदेसा पिया आवन का ,

आज भी खिलखिलाती है ज़िन्दगी

गुनकर जो रंग ,

बुनकर- सा हृदय आज भी

बुन लेता है  अभिरामिक शब्दों को

आमंजु अभिधा में ऐसे ,

जैसे तुम्हारी कविता

मेरे हृदय  में विस्थापित होती है ,

अनुश्रुति- सी ,अपने

अथक प्रयत्न  के उपरान्त !!

हाँ ..... आज भी ..!!

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2- भीकम सिंह 

1-खेतों के सवेरे

 

पौ फटते ही


कुछ  झाड़ियाँ 

कुछ खरपतवार 

मिल जाते हैं 

खेतों की देह को घेरे हुए।

 

थुलथुल खर-पतवार 

खेतों की देह पे थिरकें

रसायनों के नशे में 

फसलों की बाँह पकड़े

मूर्ख मुद्रा में  ठहरे हुए 

 

दिनचर्या के नीचे 

दबे हुए खेत

गिरवी के डर से 

चुपचाप  -

सहते रहते हैं अँधेरे हुए 

 

धीरे-धीरे 

पुरवा आती 

दिन भर के थके खेत

झाड़ियों के ही कंधे ढूँढते

पर वो खड़ी रहती मुँह फेरे हुए 

 

फिर चाँदनी रात में 

झाड़ियों के साये तले 

साँसें  छोड़ते 

किलकारी मारते 

खेतों के सवेरे हुए।

2-दूब

दूब-1

 

दूब आएँगी 

आँखों में पानी भर देगी

दुर्लभ छींटों से 

सबको धन्य कर देगी 

 

दूब- 2

 

दूब के बारे  में सोचा 

काँपते हुए आती है 

पूजा की थाली में बैठ जाती है 

पालथी मार ।

 

और जंगली घास 

छुपा लेती है 

तपती धूप में 

वैदिक युग  का आर्तनाद 

 

दूब  - 3

 

गाँव में दूब

मिट्टी में मुँह छिपाती 

सोने को ज्यों लेती सहारे 

फैलती जाती पैर पसारे 

 

दूब - 4

 

लॉन की दूब

उगने का अधिकार बताने 

ज्यों ज्यों अपना मुँह उठाती

बेरहमी से काट दी जाती 

 

दूब - 5

 

हरी दूब पर 

नंगे पड़े पैरों के 

बाहर और भीतर 

एक खामोशी-सी ठहरी ।

 

जिसे ऊबकर

यहाँ वहाँ आते-जाते 

चौरस्तों पर

फेंक रहे हैं शहरी 

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3-कपिल कुमार

नभ के नीचे बैठ लिखें प्रेम-विधान प्रिये! 

सबसे पहले दुःख लिखें फिर समाधान प्रिये!

 

नदी का विलाप लिखें रवि का ताप लिखें

समुद्र का मौन लिखें फिर प्रेम-व्यवधान प्रिये!

 

चिड़ियों की चहक लिखें फूलों की महक लिखें

तारों की चमक लिखें सितारों का गुणगान प्रिये! 

 

गालों की चमक लिखें बालों का लिखें गजरा

नयनों का काजल लिखें होठों का आख्यान प्रिये! 

 

नायक का मिलाप लिखें मेघों का आलाप लिखें

इंद्रधनुष के सातों रंग कोयल सा व्याख्यान प्रिये! 

 

जवानी की पीड़ा लिखें बचपन की क्रीड़ा लिखें

हृदय जो बिल्कुल खाली है भर दे खाली स्थान प्रिये

 

नए-पुराने गाँव लिखें पीपल की सी छाँव लिखें

हरा भरा हरियाणा लिखें सूखा राजस्थान प्रिये!

 

हृदय की व्यथा लिखें प्रेमचंद की कथा लिखें

गाँधी जी का अहिंसा युक्त नया हिंदुस्तान प्रिये!

नभ के नीचे बैठ लिखें प्रेम-विधान प्रिये! 

सबसे पहले दुःख लिखें  फिर समाधान प्रिये!

 

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