पथ के साथी

Thursday, October 21, 2021

1146

 प्रीति अग्रवाल

 1- समय की डोर

 

कल की सोच में

बीत रहा है,
आज का दिन
कल,
फिर आएगा,
एक और,
नए-पुराने,
कल की सोच में,
फिर लग जागा
मानो,
'आज' का
अपना कोई
वजूद ही न हो....
वह मात्र
दो 'कलों' के बीच,
विश्रामस्थली -सा हो....।

सोच में थी,
इस 'आज' को
कैसे थामूँ
इसे,
किस डोर से बाँधूँ,
कि ठहर जाए,
कुछ देर, यह
पास मेरे....

अनायास ही,
नज़र पड़ी,
अठखेलियाँ करती,
दो तितलियों पर....
पकड़म-पकड़ाई
खेल रही थी,
एक दूसरे को
उकसा रही थी,
चिढ़ा रही थी, खूब
आनंद उठा रहीं थी....
ठीक वैसे,
जैसे सहेलियाँ, अकसर,
किया करती हैं....

थक कर, हाँफती,
दोनों जा बैठी
फूलों की सेज पर
रसपान करने,
अरे लो!
वे तो फिर उड़ चलीं
इस बार,
जो पिछली बार
पीछे रह ग थी,
बड़ी चतुराई से
मुँह चिढ़ाती,
आगे निकल गई,
उन्हें देख, मेरी
हँसी भी न रुकी....
वही,
बचपन वाली हँसी,
जो,
बेबात आती थी,
बेवक्त आती थी,
बड़ी देर तक आती थी,
बहुत खुल कर आती थी....
मैं, उनकी अठखेलियों में
ऐसे खोई, कि
कुछ बोध न रहा....
न बीते कल का,
न आने वाले कल का.....!

वे दोनों,
जाते -जाते,
मेरे हाथों,
'आज' की डोर,
थमा गईं!!

-0-


मेरे हँसने पर हँसते हो
रोने पर रोते,
कहो तो सही
तुम मेरे कौन हो....
मेरे पूछने से पहले,
आईना, पूछ बैठा....!!
3
है खुद की प्यास मिटानी तो,
दूजे को नीर पिलाओ.....
मिटेगी तृष्णा ऐसे ही,
एक बार तो, आज़माओ!
4
कहने को यूँ तो
था बहुत, पर
क्या कहूँ....
कैसे कहूँ.....
किससे कहूँ....
कहूँ, न कहूँ....
इस सोच में
उलझी रही....
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी ठहरी
क्यों रुकती,
चलती रही....!
5
तुम संग बीते लम्हें
काश! समेट पाते....
नर्म, मुलायम इतने,
हाथों से फिसले जाते....!
6
ये लोग
जो चले जाते हैं,
जाते हैं कहाँ....
पूछते उन्हीं से,
जो लौटते,
वो यहाँ..!
7
पहुँचने की तुम तक
है कैसी लगन...
हर वक्त यूँ लगे, कि
सफर में हैं हम....!
8
हम दोनों की मंज़िल,
हम दोनों ही हैं....
सफर खूबसूरत,
यूँही नहीं.....!!
9
था लम्बा सफर
पर मैं न थकी...
थकी, तो बस,
तुझे, मना मना थकी!
10
जज़्बात को मेरे
समझते वे कैसे.....
बातें ही मेरी,
समझ वे न पाए...!
11
ज़िन्दगी में साल, चाहे
जितने भी हो......
हर साल में, बस,
ज़िन्दगी चाहिए !